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स्वप्न और मिथ्यात्ववाद

जो लोग इन बातों में अच्छी तरह प्रवेश नहीं कर पाते वह चटपट कह बैठते हैं कि सपने की बात तो साफ ही झूठी है। उसमें तो शक की गुंजाइश है नहीं। उसे तो कोई भी सच कहने को तैयार नहीं है। मगर संसार को तो सभी सत्य कहते हैं। सभी यहाँ की बातों को सच्ची मानते हैं। एक भी इन्हें मिथ्या कहने को तैयार नहीं। इसके सिवाय सपने का संसार केवल दोई-चार मिनट या घंटे-आध घंटे की ही चीज है, उतनी ही देर की खेल है - यह तो निर्विवाद है। सपने का समय होता ही आखिर कितना लंबा? मगर हमारा यह संसार तो लंबी मुद्दतवाला है, हजारों-लाखों वर्ष कायम रहता है। यहाँ तक कि सृष्टि और प्रलय के सिलसिले में वेदांती भी ऐसा ही कहते हैं कि प्रलय बहुत दिनों बाद होती है और लंबी मुद्दत के बाद ही पुनरपि सृष्टि का कारबार शुरू होता है। गीता (8। 17। 19) के वचनों से भी यही बात सिद्ध होती है। फिर सपने के साथ इसकी तुलना कैसी? यह तो वही हुआ कि 'कहाँ राजा भोज, और कहाँ भोजवा तेली!"

मगर ऐसे लोग जरा भूलते हैं। सपने की बातें झूठी हैं, झूठी मानी जाती हैं सही। मगर कब? सपने के ही समय या जगने पर? जरा सोचें और उत्तर तो दें? इस अपने संसार को थोड़ी देर के लिए भूल के सपने में जा बैठें और देखें कि क्या सपने के भी समय वहाँ की देखी-सुनी चीजें झूठी मानी जाती हैं। विचारने पर साफ उत्तर मिलेगा कि नहीं। उस समय तो वह एकदम सच्ची और पक्की लगती हैं। उनकी झुठाई का तो वहाँ खयाल भी नहीं होता। इस बात का सवाल उठना तो दूर रहे। हाँ, जगने पर वे जरूर मिथ्या प्रतीत होती हैं। ठीक उसी प्रकार इस जाग्रत संसार की भी चीजें अभी तो जरूर सत्य प्रतीत होती हैं। इसमें तो कोई शक है नहीं। मगर सपने में भी क्या ये सच्ची ही लगती हैं? क्या सपने में ये सच्ची होती हैं, बनी रहती हैं? यदि कोई हाँ कहे, तो उससे पूछा जाए कि भरपेट खा के सोने पर सपने में भूखे दर-दर मारे क्यों फिरते हैं? पेट तो भरा ही है और वह यदि सच्चा है, तो सपने में भूखे होने की क्या बात? तो क्या भूखे होने में कोई भी शक उस समय रहता है? इसी प्रकार कपड़े पहने सोए हैं। महल या मकान में ही बिस्तर है भी। ऐसी दशा में सपने में नंगे या चिथड़े लपेटे दर-दर खाक छानने की बात क्यों मालूम होती है? क्या इससे यह नहीं सिद्ध होता कि जैसे सपने की चीजें जागने पर नहीं रह जाती हैं, ठीक उसी तरह जाग्रत की चीजें भी सपने में नहीं रह जाती हैं? जैसे सपने की अपेक्षा यह संसार जाग्रत है, तैसे ही इसकी अपेक्षा सपने का ही संसार जाग्रत है और यही सपने का है। दोनों में जरा भी फर्क नहीं है।

सपने की बात थोड़ी देर रहती है और यहाँ की हजारों साल, यह बात भी वैसी ही है। यहाँ भी वैसा ही सवाल उठता है कि क्या सपने में भी वहाँ की चीजें थोड़ी ही देर को मालूम पड़ती हैं? या वहाँ भी सालों और युग गुजरते मालूम पड़ते हैं? सपने में किसे खयाल होता है कि यह दस ही पाँच मिनट का तमाशा है? वहाँ तो जानें कहाँ-कहाँ जाते, हफ्तों, महीनों, सालों गुजरते, सारा इंतजाम करते दीखते हैं, ठीक जैसे यहाँ कर रहे हैं। हाँ, जागने पर वह चंद मिनट की चीज जरूर मालूम होती है। तो सोने पर इस संसार का भी तो यही हाल होता है। इसका भी कहाँ पता रहता है? अगर ऐसा ही विचार करने का मौका वहाँ भी आए तो ठीक ऐसी ही दलीलें देते मालूम होते हैं कि वह तो चंद ही मिनटों का तमाशा है! उस समय यह जाग्रत वाला संसार ही चंद मिनटों की चीज नजर आती है और सपने की ही दुनिया स्थाई प्रतीत होती है! इसलिए यह भी तर्क बेमानी है। इसलिए भुसुण्डी ने अपने सपने या भ्रम के बारे में कहा था कि 'उभय घरी मँह कौतुक देखा।' हालाँकि तुलसीदास ने उनका ही बयान दिया है कि उस समय मालूम होता था कि कितने युग गुजर गए। गौड़ पादाचार्य ने माण्डूक्य उपनिषद की कारिकाओं में दोनों की हर तरह से समानता तर्क-दलील से सिद्ध की है और बहुत ही सुंदर विवेचन के बाद उपसंहार कर दिया है कि 'मनीषी लोग स्वप्न और जाग्रत को एक-सा ही मानते हैं। क्योंकि दोनों की हरेक बातें बराबर हैं और यह बिलकुल ही साफ बात हैं' - "स्वप्नजागरिते स्थाने ह्येकमाहुर्मनीषिण:। भेदानां हि समत्वेन प्रसिद्धेनैव हेतुना।"

गीताधर्म और मार्क्सवाद

स्वामी सहजानन्द सरस्वती
Chapters
गीताधर्म कर्म का पचड़ा श्रद्धा का स्थान धर्म व्यक्तिगत वस्तु है धर्म स्वभावसिद्ध है स्वाभाविक क्या है? मार्क्‍सवाद और धर्म द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और धर्म भौतिक द्वन्द्ववाद धर्म, सरकार और पार्टी दृष्ट और अदृष्ट अर्जुन की मानवीय कमजोरियाँ स्वधर्म और स्वकर्म योग और मार्क्‍सवाद गीता की शेष बातें गीता में ईश्वर ईश्वर हृदयग्राह्य हृदय की शक्ति आस्तिक-नास्तिक का भेद दैव तथा आसुर संपत्ति समाज का कल्याण कर्म और धर्म गीता का साम्यवाद नकाब और नकाबपोश रस का त्याग मस्ती और नशा ज्ञानी और पागल पुराने समाज की झाँकी तब और अब यज्ञचक्र अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ अन्य मतवाद अपना पक्ष कर्मवाद और अवतारवाद ईश्वरवाद कर्मवाद कर्मों के भेद और उनके काम अवतारवाद गुणवाद और अद्वैतवाद परमाणुवाद और आरंभवाद गुणवाद और विकासवाद गुण और प्रधान तीनों गुणों की जरूरत सृष्टि और प्रलय सृष्टि का क्रम अद्वैतवाद स्वप्न और मिथ्यात्ववाद अनिर्वचनीयतावाद प्रातिभासिक सत्ता मायावाद अनादिता का सिद्धांत निर्विकार में विकार गीता, न्याय और परमाणुवाद वेदांत, सांख्य और गीता गीता में मायावाद गीताधर्म और मार्क्सवाद असीम प्रेम का मार्ग प्रेम और अद्वैतवाद ज्ञान और अनन्य भक्ति सर्वत्र हमीं हम और लोकसंग्रह अपर्याप्तं तदस्माकम् जा य ते वर्णसंकर: ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव सर्व धर्मान्परित्यज्य शेष बातें उत्तरायण और दक्षिणायन गीता की अध्‍याय-संगति योग और योगशास्त्र सिद्धि और संसिद्धि गीता में पुनरुक्ति गीता की शैली पौराणिक गीतोपदेश ऐतिहासिक गीताधर्म का निष्कर्ष योगमाया समावृत