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तब और अब

लेकिन अब हम अपने प्रसंग में आते हैं तो देखते हैं कि गीता का जो आध्यात्मिक साम्यवाद है और जिसकी दुहाई आज बहुत ज्यादा दी जाने लगी है, वह इस युग की चीज हो नहीं सकती, वह जनसाधारण की वस्तु हो नहीं सकती। बिरले माई के लाल उसे प्राप्त कर सकते हैं। इसी कठिनता को लक्ष्य करके कठोपनिषद् में कहा गया है कि 'बहुतों को तो इसकी चर्चा सुनने का भी मौका नहीं लगता और सुनकर भी बहुतेरे इसे हासिल नहीं कर सकते - जान नहीं सकते। क्यों कि एक तो इस बात का पूरा जानकार उपदेशक ही दुर्लभ है और अगर कहीं मिला भी तो उसके उपदेश को सुनके तदनुसार प्रवीण हो जाने वाले ही असंभव होते हैं' - “श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्य: शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्यु:। आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाऽऽश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्ट:” (1। 2। 7) यही बात ज्यों की त्यों गीता ने भी कुछ और भी विशद रूप से इसकी असंभवता को दिखाते हुए यों कही है कि 'आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य:। आश्चर्यवच्चन मन्य: शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्' (2। 29)।

पहले भी तो इस चीज की अव्यावहारिकता का वर्णन किया जाई चुका है। आमतौर से सांसारिक लोगों के लिए तो यह चीज पुराने युग में भी कठिनतम थी - प्राय: असंभव थी ही। मगर वर्तमान समय में तो एकदम असंभव हो चुकी है। जो लोग इसकी बार-बार चर्चा करते तथा मार्क्स के भौतिक साम्यवाद के मुकाबिले में इसी आध्यात्मिक साम्यवाद को पेश करके इसी से लोगों को संतोष करना चाहते हैं वे तो इससे और भी लाखों कोस दूर हैं। वे या तो पूँजीवादी और जमींदार हैं या उनके समर्थक और इष्ट-मित्र या संगी-साथी। क्या वे लोग सपने में भी इस चीज की प्राप्ति का खयाल कर सकते हैं, करते हैं? क्या वे मेरा-तेरा, अपना-पराया, शत्रु-मित्र, हानि-लाभ आदि से अलग होने की हिम्मत जन्म-जन्मांतर भी कर सकते हैं? क्या यह बात सच नहीं है कि उनको जो यह भय का भूत सदा सता रहा है कि कहीं भौतिक साम्यवाद के चलते उन्हें सचमुच हानि-लाभ, शत्रु-मित्र आदि से अलग हो जाना पड़े और सारी व्यक्तिगत संपत्ति से हाथ धोना पड़ जाए, उसी के चलते इस आध्यात्मिक साम्यवाद की ओट में अपनी संपत्ति और कारखाने को बचाना चाहते हैं? वे लोग बहुत दूर से घूम के आते हैं सही। मगर उनकी यह चाल जानकार लोगों में छिप नहीं सकती है। ऐसी दशा में तो यह बात उठाना निरी प्रवंचना और धोखेबाजी है। पहले वे खुद इसका अभ्यास कर लें। तब दूसरों को सिखाएँ। 'खुदरा फजीहत, दीगरे रा नसीहत' ठीक नहीं है।

मुकाबिला भी वे करते हैं किसके साथ? असंभव का संभव के साथ, अनहोनी का होनी के साथ। एक ओर जहाँ यह आध्यात्मिक साम्यवाद बहुत ऊँचा होने के कारण आम लोगों के पहुँच के बाहर की चीज है, तहाँ दूसरी ओर भौतिक साम्यवाद सर्वजनसुलभ है, अत्यंत आसान है। यदि ये भलेमानस केवल इतनी ही दया करें कि अड़ंगे लगाना छोड़ दें, तो यह चीज बात की बात में संसार व्यापी बन जाए। इसमें न तो जीते-जी मुर्दा बनने की जरूरत है और न ध्यान या समाधि की ही। यह तो हमारे आए दिन की चीज है, रोज-रोज की बात है; इसकी तरफ तो हम स्वभाव से ही झुकते हैं, यदि स्थाई स्वार्थ (Vested interests) वाले हमें बहकाएँ और फुसलाएँ न। फिर इसके साथ उसकी तुलना क्या? हाँ, जो सांसारिक सुख नहीं चाहते वह भले ही उस ओर खुशी-खुशी जाएँ। उन्हें रोकता कौन है? बल्कि इसी साम्यवाद के पूर्ण प्रचार से ही उस साम्यवाद का भी मार्ग साफ होगा, यह पहले ही कहा जा चुका है।

गीताधर्म और मार्क्सवाद

स्वामी सहजानन्द सरस्वती
Chapters
गीताधर्म कर्म का पचड़ा श्रद्धा का स्थान धर्म व्यक्तिगत वस्तु है धर्म स्वभावसिद्ध है स्वाभाविक क्या है? मार्क्‍सवाद और धर्म द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और धर्म भौतिक द्वन्द्ववाद धर्म, सरकार और पार्टी दृष्ट और अदृष्ट अर्जुन की मानवीय कमजोरियाँ स्वधर्म और स्वकर्म योग और मार्क्‍सवाद गीता की शेष बातें गीता में ईश्वर ईश्वर हृदयग्राह्य हृदय की शक्ति आस्तिक-नास्तिक का भेद दैव तथा आसुर संपत्ति समाज का कल्याण कर्म और धर्म गीता का साम्यवाद नकाब और नकाबपोश रस का त्याग मस्ती और नशा ज्ञानी और पागल पुराने समाज की झाँकी तब और अब यज्ञचक्र अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ अन्य मतवाद अपना पक्ष कर्मवाद और अवतारवाद ईश्वरवाद कर्मवाद कर्मों के भेद और उनके काम अवतारवाद गुणवाद और अद्वैतवाद परमाणुवाद और आरंभवाद गुणवाद और विकासवाद गुण और प्रधान तीनों गुणों की जरूरत सृष्टि और प्रलय सृष्टि का क्रम अद्वैतवाद स्वप्न और मिथ्यात्ववाद अनिर्वचनीयतावाद प्रातिभासिक सत्ता मायावाद अनादिता का सिद्धांत निर्विकार में विकार गीता, न्याय और परमाणुवाद वेदांत, सांख्य और गीता गीता में मायावाद गीताधर्म और मार्क्सवाद असीम प्रेम का मार्ग प्रेम और अद्वैतवाद ज्ञान और अनन्य भक्ति सर्वत्र हमीं हम और लोकसंग्रह अपर्याप्तं तदस्माकम् जा य ते वर्णसंकर: ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव सर्व धर्मान्परित्यज्य शेष बातें उत्तरायण और दक्षिणायन गीता की अध्‍याय-संगति योग और योगशास्त्र सिद्धि और संसिद्धि गीता में पुनरुक्ति गीता की शैली पौराणिक गीतोपदेश ऐतिहासिक गीताधर्म का निष्कर्ष योगमाया समावृत