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स्वधर्म और स्वकर्म

इस सिलसिले में हम दो और बातें कहके यह प्रकरण पूरा करेंगे। एक तो है अपने-अपने धर्मों में ही डटे रहने और दूसरे के साथ छेड़खानी न करने की। अपने धर्म को कभी किसी दूसरे धर्म से बुरा या छोटा न मानना और दूसरों के धर्मों पर न तो हाथ बढ़ाना और न उनकी निंदा करना, यह गीता की एक खास बात है। गीता ने इस पर खास तौर से जोर दिया है। चाहे और जगह भी यह बात भले ही पाई जाती हो; मगर गीता में जिस ढंग से इस पर जोर दिया गया है और जिस प्रकार यह कही गई है वह चीज और जगह नहीं पाई जाती।

यों तो किसी न किसी रूप में यह बात अन्य अध्यायों एवं स्थानों में भी पाई जाती है। मगर तीसरे अध्याोय के 35 वें और अठारहवें के 47-48 श्लोकों में खास तौर से इसका प्रतिपादन है। यहाँ तक कि 'श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्' श्लोक का यह आधा भाग दोनों ही जगह ज्यों का त्यों लिखा गया है। इससे गीता की नजरों में इसकी अहमियत बहुत ज्यादा मालूम पड़ती है। यह भी जान पड़ता है कि इस मामले में जो एक निश्चित दृष्टि तय कर दी गई है उसी का ज्यों का त्यों पालन करने पर ही गीता का जोर है। वह उसमें जरा भी परिवर्तन बरदाश्त नहीं कर सकती। नहीं तो उन्हीं शब्दों को हू-ब-हू दोनों जगह दुहराने का और दूसरा मतलब होई क्या सकता है? यह भी नहीं कि वे शब्द साधारण हैं। वही तो गीता के इस मंतव्य के प्रतिपादक हैं। उनके साथ जो अन्य शब्द या वाक्य पाए जाते हैं उनका काम है इन्हीं की पुष्टि करना - इन्हीं के आशय को स्पष्ट करना।

अब जरा इनका अर्थ देखें। श्लोक का जो आधा भाग ऊपर लिखा गया है उसका आशय यही है कि 'दूसरे का धर्म यदि अच्छी तरह पालन भी किया जाए तो भी उसकी अपेक्षा अपना (स्व) धर्म अधूरा या देखने में बुरा होने पर भी कहीं अच्छा होता है।' एक तो गीता ने धर्म और कर्म को एक ही माना है यह बात पहले कही जा चुकी है और आगे भी इस पर विशेष प्रकाश डालेंगे। लेकिन इतना तो इससे साफ हो जाता है कि यह मंतव्य सभी कामों, क्रियाओं या अमलों के संबंध में है, न कि धर्म के नाम पर गिनाए गए कुछ पूजा-पाठ, नमाज आदि के ही बारे में। इसका मतलब यह हुआ कि हमें अपने-अपने कामों की ही परवाह करनी चाहिए, फिक्र करनी चाहिए, फिर चाहे वे कितने भी बुरे जँचते हों, भद्दे लगते हों या उनका पूरा होना गैरमुमकिन हो। वे अधूरे भी दूसरों के पूरों से कहीं अच्छे होते हैं। इसलिए दूसरों के अच्छे, सुंदर और आसानी से पूरे होने वाले कामों पर हमारा खयाल कभी नहीं जाए; हम उन्हें करने और अपनों को छोड़ने की भूल कभी न करें। क्योंकि इस तरह हम दो कसूर कर डालेंगे। एक तो अपने कर्तव्य से भ्रष्ट होंगे और इस तरह उसकी पाबंदी के बिना होने वाली खराबियों की जवाबदेही हम पर होगी। दूसरे हम अनधिकार चेष्टा के भी अपराधी होंगे।

दूसरी बात है इसमें अपने या 'स्व' की। स्वकर्म या स्वधर्म का मतलब है जो प्रत्येक आदमी के लिए किसी वजह से भी निर्धारित है, निश्चित है उसके जिम्मे लगाया गया (assigned) है, या जो उसके स्वभाव के अनुकूल होने के कारण ही उस पर लादा गया है, उसके माथे मढ़ा गया है। अठारहवें अध्यावय वाले श्लोक में ऊपर लिखे आधे श्लोक के बाद कारण के रूप में लिखा गया है कि 'स्वभाव के अनुकूल जो काम हो उसे करने में पाप या बुराई होती नहीं' - "स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्" इससे पता चलता है कि स्वकर्म या स्वधर्म का अर्थ है 'स्वाभाविक धर्म या कर्म।' उसके पहले 41-46 तक के छह श्लोकों में चारों वर्णों के धर्मों को गिनाते हुए सबों को 'स्वाभाविकधर्म' ही कहा है। उन श्लोकों में केवल कर्म शब्द ही है और इस 47वें में भी पूर्वार्द्ध में 'धर्म' कहके उत्तरार्द्ध में, जैसा कि अभी दिखाया है, 'कर्म' ही कहा गया है। बाद वाले 48वें में भी 'सहजं कर्म-कौंतेय' में पुनरपि कर्म शब्द ही आया है। फलत: मानना होगा कि धर्म और कर्म एक ही मानी में बोले गए हैं और इन शब्दोंब का अर्थ है स्वभावनियत, स्वभाव के अनुकूल या स्वाभाविक काम।

मगर समस्त गीता के आलोड़न करने और अठारहवें अध्याकय के आरंभ के ही कुछ वचनों को भी देखने से पता चलता है कि कुछ कर्म ऐसे हैं जिनके बारे में स्वभाव का सवाल होता ही नहीं। वे तो सबों के लिए नियत, स्थिर या तयशुदा हैं। दृष्टांत के लिए 5-6 दो श्लोकों में यज्ञ, दान, तप के बारे में कहा गया है कि ये सबों के लिए समान रूप से कर्तव्य हैं। इन्हें कोई छोड़ नहीं सकता। बेशक फल और कर्म - दोनों की ही - आसक्ति छोड़ के ही ये किए जाने चाहिए, कृष्ण ने अपना यह पक्का मंतव्य कहा है। इसके बाद ही 'नियतस्य तु संन्यास: कर्मण:' आदि में कहा है कि नियत कर्म का त्याग उचित नहीं है। वह तो तामस त्याग है। 9वें श्लोक में भी 'कार्यमित्येव यत्कर्म नियत:' शब्दों के द्वारा नियत कर्म को कर्तव्य समझ के करते हुए फलासक्ति के एवं कर्मासक्ति के त्याग को ही सात्त्विक-त्याग कहा है। इससे स्पष्ट है कि नियत कर्म कहते हैं स्वाभाविक कर्म को और किसी कारणवश स्थिर या निश्चित किए गए (assigned) कर्म को भी। यज्ञ, दान, तप ऐसे की कर्मों में आते हैं। अपने आश्रितों का पालन या रक्षा भी ऐसे ही कर्मों में है। पहरेदार का पहरा देना, अध्यापक का पढ़ाना या सेवक की सेवा भी ऐसी ही है। अनेक धर्म, मजहब या संप्रदायों के अनुसार जिसे जो करने को कहा गया है वह भी नियतकर्म या स्वधर्म में आ जाता है। अपनी श्रद्धा और समझ से जो कुछ भी करता है वह तो पक्का-पक्की स्वधर्म है।

इस प्रकार यदि देखा जाए तो गीता ने धर्म-मजहब के झगड़े और शुद्धि या तबलीग के सवाल की जड़ को ही खत्म कर दिया है। गीता इन झगड़ों और सवालों को भेड़ों का मूँड़ना ही समझती है। और आदमी को भेड़ बनाना तो कभी उचित नहीं। इसलिए इन झमेलों में पड़ने की मनाही उसने कर दी है। उसने तो अठारहवें अध्याउय के 48वें श्लोक में यह भी कह दिया है कि बुराई-भलाई तो सभी जगह और सभी कामों में लगी हुई है। इसलिए कर्मों के संबंध में अच्छे और बुरे होने की क्या बात? हमारा धर्म अच्छा, तुम्हारा बुरा, यह बात उठती ही कैसे है? सभी बुरे और सभी अच्छे हैं। किसने देखा है कि कौन-से धर्म भगवान या खुदा तक सीढ़ी लगा देते हैं? इसीलिए तीसरे अध्याीय में 'श्रेयान्स्वधर्मो विगुण:' आदि आधे श्लोक के बाद कहा है कि 'इसलिए स्वधर्म करते-करते मर जाना ही कल्याणकारी है; दूसरे का (पर) धर्म तो भयदायक है।'

इतना ही नहीं। ठीक इस श्लोक के पूर्व वाले 34वें श्लोक में कहा है कि 'हरेक इंद्रियों के जो पदार्थ (विषय) होते हैं उनके साथ रागद्वेष लगे ही होते हैं; उनसे किसी का भी पिंड छूटा नहीं होता। इसलिए इन रागद्वेषों से ही बचना चाहिए। असल में चीजें या उनका ताल्लुक ये खुद बुरे नहीं हैं - इनसे किसी की हानि नहीं होती। किंतु उनमें जो रागद्वेष होते हैं वही सब कुछ करते हैं - वही जहर हैं, घातक है' - “इंद्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यस्थितौ। तयोर्न वशभागच्छेत्तौक ह्यस्य परिपन्थिनौ॥” इस बात का प्रतिपादन तो पहले बहुत विस्तार के साथ किया गया है। यहाँ ऐसा कहने का अभिप्राय यह है कि भले बुरे का सवाल उठाके जो किसी धर्म या काम को बुरा और दूसरे को अच्छा कहते हैं और इसीलिए आपस में लोगों के सर भी फूटते हैं, वह तो नादानी है। न कोई भला है न बुरा। भला-बुरा तो अपना मन ही है। यही तो चीजों या कामों में रागद्वेष पैदा करके जहन्नुम पहुँचाता है। इसलिए हमें इस भूल में हर्गिज नहीं पड़ना होगा। गीता का यह कितना सुंदर मंत्र है और यदि हम इस पर चलें तो हमारे हक की लड़ाई कितनी जल्दी सफल हो जाए। ऐसा होने पर तो मार्क्सऔवाद के सामने की भारी चट्टान ही खत्म जो जाए और वर्गसंघर्ष निर्बाध चलने लगे।

गीताधर्म और मार्क्सवाद

स्वामी सहजानन्द सरस्वती
Chapters
गीताधर्म कर्म का पचड़ा श्रद्धा का स्थान धर्म व्यक्तिगत वस्तु है धर्म स्वभावसिद्ध है स्वाभाविक क्या है? मार्क्‍सवाद और धर्म द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और धर्म भौतिक द्वन्द्ववाद धर्म, सरकार और पार्टी दृष्ट और अदृष्ट अर्जुन की मानवीय कमजोरियाँ स्वधर्म और स्वकर्म योग और मार्क्‍सवाद गीता की शेष बातें गीता में ईश्वर ईश्वर हृदयग्राह्य हृदय की शक्ति आस्तिक-नास्तिक का भेद दैव तथा आसुर संपत्ति समाज का कल्याण कर्म और धर्म गीता का साम्यवाद नकाब और नकाबपोश रस का त्याग मस्ती और नशा ज्ञानी और पागल पुराने समाज की झाँकी तब और अब यज्ञचक्र अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ अन्य मतवाद अपना पक्ष कर्मवाद और अवतारवाद ईश्वरवाद कर्मवाद कर्मों के भेद और उनके काम अवतारवाद गुणवाद और अद्वैतवाद परमाणुवाद और आरंभवाद गुणवाद और विकासवाद गुण और प्रधान तीनों गुणों की जरूरत सृष्टि और प्रलय सृष्टि का क्रम अद्वैतवाद स्वप्न और मिथ्यात्ववाद अनिर्वचनीयतावाद प्रातिभासिक सत्ता मायावाद अनादिता का सिद्धांत निर्विकार में विकार गीता, न्याय और परमाणुवाद वेदांत, सांख्य और गीता गीता में मायावाद गीताधर्म और मार्क्सवाद असीम प्रेम का मार्ग प्रेम और अद्वैतवाद ज्ञान और अनन्य भक्ति सर्वत्र हमीं हम और लोकसंग्रह अपर्याप्तं तदस्माकम् जा य ते वर्णसंकर: ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव सर्व धर्मान्परित्यज्य शेष बातें उत्तरायण और दक्षिणायन गीता की अध्‍याय-संगति योग और योगशास्त्र सिद्धि और संसिद्धि गीता में पुनरुक्ति गीता की शैली पौराणिक गीतोपदेश ऐतिहासिक गीताधर्म का निष्कर्ष योगमाया समावृत