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रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब

रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब आ जाएगा
फिर के बुर्ज-ए-सुंबले में आफ़ताब आ जाएगा.

तेरा एहसाँ होगा क़ासिद गर शताब आ जाएगा
सब्र मुझ को देख कर ख़त का जवाब आ जाएगा.

हो न बे-ताब इतना गर उस का इताब आ जाएगा
तू ग़ज़ब में ऐ दिल-ए-ख़ाना-ए-ख़राब आ जाएगा.

इस क़दर रोना नहीं बेहतर बस अब अश्कों को रोक
वर्ना तूफ़ाँ देख ऐ चश्म-ए-पुर-आब आ जाएगा.

पेश होवेगा अगर तेरे गुनाहों का हिसाब
तंग ज़ालिम अरसा-ए-रोज़-ए-हिसाब आ जाएगा.

देख कर दस्त-ए-सितम में तेरी तेग़-ए-आब-दार
मेरे हर ज़ख़्म-ए-जिगर के मुँह में आब आ जाएगा.

अपनी चश्म-ए-मस्त की गर्दिश न ऐ साक़ी दिखा
देख चक्कर में अभी जाम-ए-शराब आ जाएगा.

ख़ूब होगा हाँ जो सीने से निकल जाएगा तू
चैन मुझ को ऐ दिल-ए-पुर-इज़्तिराब आ जाएगा.

ऐ ‘ज़फ़र’ उठ जाएगा जब पर्द-ए-शर्म-ओ-हिजाब
सामने वो यार मेरे बे-हिजाब आ जाएगा.

बहादुर शाह ज़फ़र की शायरी

बहादुर शाह ज़फ़र
Chapters
पसे-मर्ग मेरे मजार पर हम तो चलते हैं लो ख़ुदा हाफ़िज़ कीजे न दस में बैठ कर लगता नहीं है जी मेरा सुबह रो रो के शाम होती है थे कल जो अपने घर में वो महमाँ कहाँ हैं वो बेहिसाब जो पी के कल शराब आया या मुझे अफ़सर-ए-शाहा न बनाया होता जा कहियो उन से नसीम-ए-सहर शमशीर बरहना माँग ग़ज़ब बालों खुलता नहीं है हाल किसी पर कहे बग़ैर हमने दुनिया में आके क्या देखा यार था गुलज़ार था बाद-ए-सबा थी दिल की मेरी बेक़रारी तुम न आये एक दिन बात करनी मुझे मुश्किल कभी बीच में पर्दा दुई का था जो भरी है दिल में जो हसरत देख दिल को मेरे ओ काफ़िर देखो इन्साँ ख़ाक का पुतला गालियाँ तनख़्वाह ठहरी है है दिल को जो याद आई हम ने तेरी ख़ातिर से दिल-ए-ज़ार हम ये तो नहीं कहते के हवा में फिरते हो क्या हिज्र के हाथ से अब इश्क़ तो मुश्किल है ऐ दिल इतना न अपने जामे से जब कभी दरया में होते जब के पहलू में हमारे जिगर के टुकड़े हुए जल के काफ़िर तुझे अल्लाह ने सूरत करेंगे क़स्द हम जिस दम ख़्वाह कर इंसाफ़ ज़ालिम ख़्वाह क्या कहूँ दिल माइल-ए-ज़ुल्फ़-ए-दोता क्या कुछ न किया और हैं क्या क्यूँकर न ख़ाक-सार रहें क्यूँके हम दुनिया में आए मैं हूँ आसी के पुर-ख़ता कुछ हूँ मर गए ऐ वाह उन की मोहब्बत चाहिए बाहम हमें न दाइम ग़म है नै इशरत न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न दो दुश्नाम हम को न उस का भेद यारी से नहीं इश्क़ में उस का तो रंज निबाह बात का उस हीला-गर पान खा कर सुरमा की तहरीर क़ारूँ उठा के सर पे सुना रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब सब रंग में उस गुल की शाने की हर ज़बाँ से सुने कोई तफ़्ता-जानों का इलाज ऐ टुकड़े नहीं हैं आँसुओं में दिल के वाँ इरादा आज उस क़ातिल के वाँ रसाई नहीं तो फिर क्या है वाक़िफ़ हैं हम के हज़रत-ए-ग़म ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को ज़ुल्फ़ जो रुख़ पर तेरे ऐ