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क्यूँकर न ख़ाक-सार रहें

क्यूँकर न ख़ाक-सार रहें अहल-ए-कीं से दूर
देखो ज़मीं फ़लक से फ़लक है ज़मीं से दूर.

परवाना वस्ल-ए-शम्मा पे देता है अपनी जाँ
क्यूँकर रहे दिल उस के रुख़-ए-आतिशीं से दूर.

मज़मून-ए-वस्ल-व-हिज्र जो नामे में है रक़म
है हर्फ़ भी कहीं से मिले और कहीं से दूर.

गो तीर-ए-बे-गुमाँ है मेरे पास पर अभी
जाए निकल के सीना-ए-चर्ख़-ए-बरीं से दूर.

वो कौन है के जाते नहीं आप जिस के पास
लेकिन हमेशा भागते हो तुम हमीं से दूर.

हैरान हूँ के उस के मुक़ाबिल हो आईना
जो पुर-ग़ुरूर खिंचता है माह-ए-मुबीं से दूर.

याँ तक अदू का पास है उन को के बज़्म में
वो बैठते भी हैं तो मेरे हम-नशीं से दूर.

मंज़ूर हो जो दीद तुझे दिल की आँख से
पहुँचे तेरी नज़र निगह-ए-दूर-बीं से दूर.

दुन्या-ए-दूँ की दे न मोहब्बत ख़ुदा ‘ज़फ़र’
इन्साँ को फेंक दे है ये ईमान ओ दीं से दूर.

बहादुर शाह ज़फ़र की शायरी

बहादुर शाह ज़फ़र
Chapters
पसे-मर्ग मेरे मजार पर हम तो चलते हैं लो ख़ुदा हाफ़िज़ कीजे न दस में बैठ कर लगता नहीं है जी मेरा सुबह रो रो के शाम होती है थे कल जो अपने घर में वो महमाँ कहाँ हैं वो बेहिसाब जो पी के कल शराब आया या मुझे अफ़सर-ए-शाहा न बनाया होता जा कहियो उन से नसीम-ए-सहर शमशीर बरहना माँग ग़ज़ब बालों खुलता नहीं है हाल किसी पर कहे बग़ैर हमने दुनिया में आके क्या देखा यार था गुलज़ार था बाद-ए-सबा थी दिल की मेरी बेक़रारी तुम न आये एक दिन बात करनी मुझे मुश्किल कभी बीच में पर्दा दुई का था जो भरी है दिल में जो हसरत देख दिल को मेरे ओ काफ़िर देखो इन्साँ ख़ाक का पुतला गालियाँ तनख़्वाह ठहरी है है दिल को जो याद आई हम ने तेरी ख़ातिर से दिल-ए-ज़ार हम ये तो नहीं कहते के हवा में फिरते हो क्या हिज्र के हाथ से अब इश्क़ तो मुश्किल है ऐ दिल इतना न अपने जामे से जब कभी दरया में होते जब के पहलू में हमारे जिगर के टुकड़े हुए जल के काफ़िर तुझे अल्लाह ने सूरत करेंगे क़स्द हम जिस दम ख़्वाह कर इंसाफ़ ज़ालिम ख़्वाह क्या कहूँ दिल माइल-ए-ज़ुल्फ़-ए-दोता क्या कुछ न किया और हैं क्या क्यूँकर न ख़ाक-सार रहें क्यूँके हम दुनिया में आए मैं हूँ आसी के पुर-ख़ता कुछ हूँ मर गए ऐ वाह उन की मोहब्बत चाहिए बाहम हमें न दाइम ग़म है नै इशरत न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न दो दुश्नाम हम को न उस का भेद यारी से नहीं इश्क़ में उस का तो रंज निबाह बात का उस हीला-गर पान खा कर सुरमा की तहरीर क़ारूँ उठा के सर पे सुना रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब सब रंग में उस गुल की शाने की हर ज़बाँ से सुने कोई तफ़्ता-जानों का इलाज ऐ टुकड़े नहीं हैं आँसुओं में दिल के वाँ इरादा आज उस क़ातिल के वाँ रसाई नहीं तो फिर क्या है वाक़िफ़ हैं हम के हज़रत-ए-ग़म ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को ज़ुल्फ़ जो रुख़ पर तेरे ऐ