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काफ़िर तुझे अल्लाह ने सूरत

काफ़िर तुझे अल्लाह ने सूरत तो परी दी
पर हैफ़ तेरे दिल में मोहब्बत न ज़री दी.

दी तू ने मुझे सल्तनत-ए-बहर-ओ-वर ऐ इश्क़
होंटों को जो ख़ुश्की मेरी आँखों को तरी दी.

ख़ाल-ए-लब-ए-शीरीं का दिया बोसा कब उस ने
इक चाट लगाने को मेरे नीशकरी दी.

काफ़िर तेरे सौदा-ए-सर-ए-ज़ुल्फ़ ने मुझ को
क्या क्या न परेशानी ओ आशुफ़्ता-सरी दी.

मेहनत से है अज़मत के ज़माने में नगीं को
बे-काविश-ए-सीना न कभी नाम-वरी दी.

सय्याद ने दी रूख़सत-ए-परवाज़ पर अफ़सोस
तू ने न इजाज़त मुझे बे-बाल-ओ-परी दी.

कहता तेरा कुछ सोख़्ता-जाँ लेक अजल ने
फ़ुर्सत न उसे मिस्ल-ए-चराग़-ए-सहरी दी.

क़स्साम-ए-अज़ल ने न रखा हम को भी महरूम
गरचे न दिया कोई हुनर बे-हुनरी दी.

उस चश्म में है सुरमे का दुम्बाला पुर-आशोब
क्यूँ हाथ में बद-मस्त के बंदूक़ भरी दी.

दिल दे के किया हम ने तेरी ज़ुल्फ़ का सौदा
इक आप बला अपने लिए मोल ख़रीदी.

साक़ी ने दिया क्या मुझे इक साग़र-ए-सरशार
गोया के दो आलम से ‘ज़फ़र’ बे-ख़बरी दी.

बहादुर शाह ज़फ़र की शायरी

बहादुर शाह ज़फ़र
Chapters
पसे-मर्ग मेरे मजार पर हम तो चलते हैं लो ख़ुदा हाफ़िज़ कीजे न दस में बैठ कर लगता नहीं है जी मेरा सुबह रो रो के शाम होती है थे कल जो अपने घर में वो महमाँ कहाँ हैं वो बेहिसाब जो पी के कल शराब आया या मुझे अफ़सर-ए-शाहा न बनाया होता जा कहियो उन से नसीम-ए-सहर शमशीर बरहना माँग ग़ज़ब बालों खुलता नहीं है हाल किसी पर कहे बग़ैर हमने दुनिया में आके क्या देखा यार था गुलज़ार था बाद-ए-सबा थी दिल की मेरी बेक़रारी तुम न आये एक दिन बात करनी मुझे मुश्किल कभी बीच में पर्दा दुई का था जो भरी है दिल में जो हसरत देख दिल को मेरे ओ काफ़िर देखो इन्साँ ख़ाक का पुतला गालियाँ तनख़्वाह ठहरी है है दिल को जो याद आई हम ने तेरी ख़ातिर से दिल-ए-ज़ार हम ये तो नहीं कहते के हवा में फिरते हो क्या हिज्र के हाथ से अब इश्क़ तो मुश्किल है ऐ दिल इतना न अपने जामे से जब कभी दरया में होते जब के पहलू में हमारे जिगर के टुकड़े हुए जल के काफ़िर तुझे अल्लाह ने सूरत करेंगे क़स्द हम जिस दम ख़्वाह कर इंसाफ़ ज़ालिम ख़्वाह क्या कहूँ दिल माइल-ए-ज़ुल्फ़-ए-दोता क्या कुछ न किया और हैं क्या क्यूँकर न ख़ाक-सार रहें क्यूँके हम दुनिया में आए मैं हूँ आसी के पुर-ख़ता कुछ हूँ मर गए ऐ वाह उन की मोहब्बत चाहिए बाहम हमें न दाइम ग़म है नै इशरत न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न दो दुश्नाम हम को न उस का भेद यारी से नहीं इश्क़ में उस का तो रंज निबाह बात का उस हीला-गर पान खा कर सुरमा की तहरीर क़ारूँ उठा के सर पे सुना रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब सब रंग में उस गुल की शाने की हर ज़बाँ से सुने कोई तफ़्ता-जानों का इलाज ऐ टुकड़े नहीं हैं आँसुओं में दिल के वाँ इरादा आज उस क़ातिल के वाँ रसाई नहीं तो फिर क्या है वाक़िफ़ हैं हम के हज़रत-ए-ग़म ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को ज़ुल्फ़ जो रुख़ पर तेरे ऐ