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पत्री 39

जसे मुल यात्रेमध्ये खेळणी विलोकी
फुगा घेइ किंवा चिमणी खळखुळाच तो की
असे त्यास होई, कोपे तो पिता तयाचा
काहिही न घेउन देई, बाळ रडत त्याचा।।

तसे जगी बाप्पा देवा!  जाहले मदीय
करु हे करु की ते हा निश्चयो न होय
मदुत्साह सतरा कामी विभागून जाई
म्हणुन देवराया!  हाती काहिही न येई।।

ग्रंथकार प्रतिभावान् या सत्कवि प्रभावी
राष्ट्रवृत्त- संशोधक- सत्कृति करी करावी
दयावंत व्हावे संत प्रभुपदाब्जरक्त
करुन लोकसेवा किंवा आटवू स्वरक्त।।

अशी किती ध्येये रात्रंदिन मला दिसावी
काहिही न करिता वर्षे व्यर्थ सर्व जावी
उभा रिक्त हस्ते त्वत्सिंहासनासमोर
प्रलज्जित, प्रभुजी!  ठरलो मी दिवाळखोर।।

दिली बुद्धि, शक्तिहि, दिधली इंद्रिये समर्थ
दिला देह अव्यंग असा व्हावया कृतार्थ
अल्प सार्थकाहि ना केले, मनोबुद्धिदेह
भ्रष्ट विकल सारी केली, नाशिले स्वगेह।।

वास घेतला रे माझा नित्य वासनांनी
कशी तुझी पूजा कारु मी वासल्या फुलांनी
अता तुझ्या ओतिन पायी कढत अश्रु माझे
प्रभो!  असे वदताना हे किति मदंत भाजे।।

दिले भांडवल तू देवा!  सत्कृपासमुद्रा !
काहि मी न केले झाली म्लान दीन मुद्रा
पोटि होइ अनुताप परी टिकत अल्प काळ
मोह-मधर-रुपे फसतो फिरुन फिरुन बाळ।।

पुन्हा पुन्हा पापे रचितो येति अश्रू डोळा
नाहि त्यांस किंमत, तू न प्रभुजि!  मूढ भोळा
खरे अश्रु अनुतापाचे येति एकदाच
म्हणुन अश्रु माझे हे तो नसति खास साच।।

प्रभो!  तुला सारे कळते तुजसि सांगु काय
तार तार तार मदीया तूच थोर माय
नाहि काय माया?  ये ना कळवळा तुला गे
तुझा बाळ भागे, घेई लोभुनि वा रागे।।

कधी कधी, आई!  वाटे जाउ की मरुन
नाही काहि उपयोग जगी हे जिणे जगून
भूमिभार केवळ झालो कर्महीन कीट
न लागेल आता माझ्या मना वळण नीट।।

पदोपदी घसरत जातो मोहमार्गगामी
कामना अनंता धरितो मी मनात कामी
या न जन्मि मज लाभेल प्रभा पुण्यतेची
अहा अहोरात्र मनाला गोष्ट हीच जाची।।

अहोरात्र झगडत आहे अंतरात, आई !
समर हे न संपेल असे वाटते कदाही
रिपूंजवळ झुंजत आहे एकला सदैव
अता धीर नाही आई!  मद्विरुद्ध सर्व।।

नको नको जीवन देवा!  नको अता आयु
ज्योत जीवनाची विझवी सरो प्राणवायु
जगा प्रभो!  उपयोग असे तरि नरे जगावे
भूमिभार जो कुणि त्याने शीघ्रची मरावे।।

भले जगाचे मी देवा अल्पही न केले
पुण्यवंतजननयनी मी अश्रु आणियले
परस्वांत निष्ठुरतेने नित्य पोळियेले
अन्य जीवनांस कितीदा दु:खदग्ध केले।।

पत्री

पांडुरंग सदाशिव साने
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