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कविता ५

कभी दीप जलाये थे माँ ने आरे में जो,
वो दीपक आज भी मेरे जीवन के अंधियारों को डराते हैं | हाँ बुझ गयी है लौ उसकी बाती की,
पर उसकी तपस अब भी ठंडी रातों को मुझे चैन से सुलाती है |