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आह को चाहिये इक उम्र असर होने तक

आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तॆरी ज़ुल्फ कॆ सर[1] होने तक!

दाम हर मौज में है हल्का-ए-सदकामे-नहंग
देखे क्या गुजरती है कतरे पे गुहर होने तक!

आशिकी सब्र तलब और तमन्ना बेताब‌
दिल का क्या रंग करूं खून‍-ए-जिगर होने तक!

हमने माना कि तगाफुल[2] न करोगे लेकिन‌
ख़ाक हो जाएँगे हम तुमको ख़बर होने तक!

परतवे-खुर[3] से है शबनम को फ़ना की तालीम
में भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक!

यक-नज़र बेश नहीं, फुर्सते-हस्ती गाफिल
गर्मी-ए-बज्म है इक रक्स-ए-शरर[4] होने तक!

गम-ए-हस्ती[5] का "असद" कैसे हो जुज-मर्ग-इलाज
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक!

शब्दार्थ:
  1. विजय, सुलझना
  2. उपेक्षा
  3. सूरज
  4. अन्गारों का नृत्य
  5. जीवन का दुख

दीवान ए ग़ालिब

ग़ालिब
Chapters
नक़्श फ़रियादी है किसकी शोख़ी-ए-तहरीर का जराहत तोहफ़ा अलमास अरमुग़ां जुज़ क़ैस और कोई न आया कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया दिल मेरा सोज़े-निहां से बेमहाबा जल गया शौक़ हर रंग रक़ीबे-सरो-सामां निकला धमकी में मर गया शुमार-ए-सुबहा मरग़ूब-ए-बुत-ए-मुश्किल पसंद आया दहर में नक़्शे-वफ़ा सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर न होगा यक बयाबां मांदगी से ज़ौक़ कम मेरा सरापा रहने-इशक़ो महरम नहीं है तू ही नवाहाए-राज़ का बज़्मे-शाहनशाह में अशआ़र का दफ़्तर खुला शब, कि बर्क़े सोज़ें-दिल से ज़ोहरा-ए-अब्र आब था एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना शब ख़ुमार-ए-शौक़-ए-साक़ी रस्तख़ेज़-अन्दाज़ा था दोस्त ग़मख़्वारी में मेरी सअई फ़रमायेंगे क्या ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता हवस को है निशात-ए-कार दरख़ुरे-क़हरो-ग़ज़ब जब कोई हम सा न हुआ पए-नज्रे-करम तोहफ़ा है शर्मे-ना-रसाई का गर न अन्दोहे-शबे-फ़ुरक़त बयां हो जाएगा दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ गिला है शौक़ को दिल में भी तंगी-ए-जा का क़तरा-ए-मै बस कि हैरत जब ब-तक़रीब-ए-सफ़र यार ने मैं और बज़्मे-मै से घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता यक़ ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बेकार बाग़ का वो मेरी चीन-ए-जबीं से ग़मे-पिनहां समझा फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था लब-ए-ख़ुशक दर-तिशनगी-मुरदगां का तू दोस्त किसी का भी सितमगर न हुआ था शब कि वो मज़लिस-फ़रोज़े-ख़िल्वते-नामूस था आईना देख अपना सा मुंह लेके रह गए अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा रश्क़ कहता है कि उसका ग़ैर से इख़लास, हैफ़! ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना सुरमा-ए-मुफ़्त-ए-नज़र हूँ मेरी क़ीमत ये है ग़ाफ़िल ब-वहमे-नाज़ खुद-आरा है वर्ना यां ज़ौर से बाज़ आये पर बाज़ आये क्या लताफ़त बे-कसाफ़त जलवा पैदा कर नहीं सकती इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना आमद-ए-ख़त से हुआ है हुस्न ग़म्ज़े की कशाकश से छुटा मेरे बाद बला से हैं जो ये पेशे-नज़र दरो-दीवार घर जब बना लिया तेरे दर पर कहे बग़ैर क्यों जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर है बस कि हर इक उनके इशारे में निशाँ और लरज़ता है मेरा दिल, ज़हमते-मेहरे-दरख़्शां पर लाज़िम था कि देखो मेरा रस्ता कोई दिन और क्यों कर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़ न गुल-ए-नग़्मा हूँ मुज़्दा-ऐ-ज़ौक़े-असीरी कि नज़र आता है रुख़े-निगार से है सोज़े-जाविदानी-ए-शम्अ़ ज़ख़्म पर छिड़कें कहां तिफ़लाने-बेपरवा नमक आह को चाहिये इक उम्र असर होने तक ग़म नहीं होता है आज़ादों को बेश-अज़-यक-नफ़स वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ की वफ़ा हमसे तो ग़ैर उसे जफ़ा कहते हैं पाए-अफ़गार पे जब से तुझे रहम आया है आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं ओहदे से मदहे-नाज़ के बाहर न आ सका मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त हमसे खुल जाओ बवक़्ते-मैपरस्ती एक दिन हम पर जफ़ा से तर्के-वफ़ा का गुमाँ नहीं माना-ए-दश्त नावर्दी कोई तदबीर नहीं मत मर्दुमक-ए-दीदा में समझो ये निगाहें इश्क़ तासीर से नौमेद नहीं जहां तेरा नक़्शे-क़दम मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तिहाब में कल के लिए आज कर न ख़िस्सत शराब में हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं ज़िक्र मेरा ब-बदी भी उसे मंज़ूर नहीं नाला जुज़ हुस्ने-तलब ए सितम-ईजाद नहीं दोनों जहाँ देके वो समझे ये ख़ुश रहा हो गई है ग़ैर की शीरीं-बयानी कारगर ये जो हम हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं नहीं कि मुझ को क़यामत का ऐतिक़ाद नहीं तेरे तौसन को सबा बांधते हैं दायम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमाया हो गईं दीवानगी से दोश पे जुन्नार भी नहीं नहीं है ज़ख़्म कोई बख़िया के दरख़ुर मेरे तन में मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आये क्यों गुंचा-ए-नाशिगुफ़्ता को दूर से मत दिखा कि क्यों हसद से दिल अगर काअ़बा में जा रहा तो न दो ताना वारस्ता इससे हैं कि मुहब्बत ही क्यों न हो क़फ़स में हूं गर अच्छा भी न जाने मेरे शेवन को धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीमतन के पाँव वां पहुंचकर जो ग़श आता पै-ए-हम है हमको तुम जानो तुमको ग़ैर से जो रस्मो-राह हो गई वो बात कि हो गुफ़्तगू तो क्योंकर हो किसी को दे के दिल कोई नवासंजे-फ़ुग़ाँ क्यों हो रहिये अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो सद जल्वा रू-ब-रू है मस्जिद के ज़ेरे-साया ख़राबात चाहिए बिसाते-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा-ख़ूं वो भी है बज़्मे-बुतां में सुख़न आज़ु्र्दा लबों से ग़म-ए-दुनिया से गर पाई भी फ़ुर्सत सर उठाने की क्या तंग हम सितमज़दगां का जहान है दर्द से मेरे है तुझ को बेक़रारी हाय हाय सर गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है गर ख़ामुशी से फ़ायदा इख़फ़ा-ए-हाल है एक जा हर्फ़े-वफ़ा का लिक्खा था सो भी मिट गया मेरी हस्ती फ़ज़ा-ए-हैरत आबादे-तमन्ना है रहम कर ज़ालिम, कि क्या बूद-ए-चिराग़-ए-कुश्ता है इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किये देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाये है कसरत-आराई-ए-वहदत है परस्तारी-ए-वहम सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई तस्कीं को हम न रोयें जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले कोई दिन गर ज़िन्दगानी और है कोई उम्मीद बर नहीं आती दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है फिर कुछ इस दिल को बेक़रारी है जुनूं तोहमत-कशे-तस्कीं न हो गर शादमानी की निकोहिश है सज़ा, फ़रियादी-ए-बेदाद-ए-दिलबर की बे-ऐतदालियों से सुबुक सब में हम हुए जो न नक़्दे-दाग़े-दिल की करे शोला पासबानी ज़ुल्मतकदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है आ कि मेरी जां को क़रार नहीं है हुजूम-ए-ग़म से, यां तक सर-निगूनी मुझ को हासिल है पा-ब दामन हो रहा हूँ, बस कि मैं सहरा-नवर्द जिस बज़्म में तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे हुस्न-ए-माह गरचे बहंगामे-कमाल अच्छा है न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही अ़जब निशात से, जल्लाद के, चले हैं हम आगे शिकवे के नाम से बेमेहर ख़फ़ा होता है हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है मैं उन्हें छेड़ूँ और वो ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के फिर इस अन्दाज़ से बहार आई तग़ाफ़ुल-दोस्त हूँ मेरा दिमाग़-ए-अ़ज्ज़ आ़ली है कब वो सुनता है कहानी मेरी गुलशन की तेरी सोहबत अज़ बसकि ख़ुश आई है जिस जख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की सीमाब पुश्त-ए-गर्मी-ए-आईना दे, हैं हम हैं वस्ल-ओ-हिज़्र आ़लम-ए-तमकीन-ओ-ज़ब्त में चाहिये अच्छों को जितना चाहिये हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायां मुझ से नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाये न बने चाक की ख़्वाहिश वो आके ख़्वाब में तस्कीन-ए-इज़्तिराब तो दे ख़तर है, रिश्ता-ए-उल्फ़त फ़रियाद की कोई लै नहीं है न पूछ नुस्ख़ा-ए-मरहम जराहते दिल का हम रश्क को अपने भी गवारा नहीं करते करे है बादा, तेरे लब से क्यूं न हो चश्म-ए-बुतां महव-ए-तग़ाफ़ुल दिया है दिल अगर उस को बशर है क्या कहिये कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाये है मुझ से लाग़र इतना हूं कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे कहूँ जो हाल, तो कहते हो रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गये इब्ने-मरियम हुआ करे कोई बहुत सही ग़म-ए-गेती शराब कम क्या है बाग़ पाकर ख़फ़कानी ये डराता है मुझे रौंदी हुई है कौकबए-शहरयार की हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाइश पे दम निकले हूँ मैं भी तमाशाई-ए-नैरंग-ए-तमन्ना ख़मोशियों में तमाशा, अदा निकलती है जिस जा नसीम शाना-कश-ए ज़ुल्फ़-ए-यार है आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे शबनम ब-गुल-ए-लाला न ख़ाली ज़-अदा है मंज़ूर थी ये शक्ल तजल्ली को नूर की ग़म खाने में बोदा दिले-नाकाम बहुत है मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किये हुए रहा बला में भी मुब्तिलाए-आफ़ते-रश्क है किस क़दर हलाक-ए फ़रेब-ए वफ़ा-ए गुल