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श्लोक २६ ते ३०

जलदान करनेके बाद वहाँ विश्रामके लिये उस निचले पर्वत पर ठहर जाना जो पूरे खिले हुए कदम्बपुष्पोसे ऐसा लगेगा, जैसे तुम्हारे स्पर्शसे रोमांचित हो गया हो और वेश्याओके साथ रतिक्रिडामे प्रयुक्त अंगरागादिकी महकती सुगन्धसे जिसकी गुफ़ाएँ वहाँके नागरिकोके प्रचंड यौवनको प्रकट कर रही होगी ॥२६॥

हे मेघ ! उक्त पर्वतपर विश्राम लेकर उद्यानोको सोचनेके लिये बनी कृत्रीम नदीयो ( नहरे या कुल्याओ ) के किनारे उगी हुई जुहीकी कलियोको हलकी बूँदे बरसाकर सींचते हुये तुम, बार-बार गालोपर का पसीना पोछनेमे हाथोकी गरमीसे जीनके कर्णोत्पल मुरझा गये है ऐसी, फ़ूल तोडती युवतीयोके मुखोपर छाया करते हुए क्षणभर उनसे परिचय प्राप्त करके आगे बढना ॥२७॥

यद्यपि उत्तरदिशाकी ओर जाते हुए तुमको यह मार्ग कुछ टेढा पडेगा, फ़िर भी तुम उज्जयिनीके महलोकी अटारियोके अनुरागसे विमुख न होना अर्थात उनपर अवश्य टिकना । क्योकि रेखा जैसी बिजलीके चमकनेसे चकाचौंध हुई तथा चंचल कनखियोवाली नागरिक स्त्रियोकी आँखोसे तुमने यदि खेल न किया तो समझो तुम ठगे गये ( जीवन की सफ़लता न पा सके ) ॥२८॥

यहाँ मेघमे नायक और निर्विन्ध्यामे नायिकाका आरोप किया है । ( तात्पर्य यह है कि ) जैसे कोई नायिका अपने प्रितमसे प्रणययाचना करनेके लिये करधनीसे शब्द करती है, उन्मत्तसी चलती है, नाभि आदि गौप्य अंगो का प्रदर्शन करती है, उसी प्रकार उज्जयिनी जाते हुए मार्गमे निर्विन्ध्या भी तुम्हे अपना प्रणयी समझेगी और कुजते हुए बगुले आदिकी पंक्तिरुप उसकी करधनी, टेढामेढा चलना उसका उन्माद, जलावर्त हो उसको नाभि समझकर तुम उसका रस ( जल, शृंगार ) ग्रहण करना । क्योकि स्त्रिया इन विलास चेष्टाओद्वारा ही प्रणय की याचना करती है, कण्ठसे नही ॥२९॥

हे भाग्यशाली मेघ ! उस ( निर्विन्ध्या ) को पार करके तुम्हे वहि उपाय करना है जिससे सिन्धु नदीकी कृशता दूर हो जाये । क्योकि विरहिणी नायिकाकी भाँति उसका भी जल लटकती चोटी सा स्वल्प लग रहा है । किनारेके वृक्षोसे झडे हुऎ पीले पत्तोसे ढकनेसे उसकी आभा भी फ़िकी हो गयी है । इस प्रकार अपनी वियोगावस्थासे वह दुनियाको दिखा रही है कि उसका प्रियतम ( तुम ) कितना भाग्यवान है जिसे वह इतना चाहती है कि उसके विरहमे इसकी यह दशा हो रही है ॥३०॥