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खंड 4 पृष्ठ 16

रात में महेंद्र सोया नहीं - थकावट के मारे सुबह-सुबह उसे नींद आई। सुबह आठ-नौ बजे के करीब जग कर वह झट उठ बैठा। पिछली रात की कोई अधूरी पीड़ा नींद के भीतर-ही-भीतर घूमती रही थी। सचेतन होते ही महेंद्र उसकी तकलीफ महसूस करने लगा। कुछ ही देर में रात की सारी घटना मन में जाग पड़ी। सुबह की उस धूप में, पूरी नींद न आ पाने की थकावट से सारी दुनिया और जिंदगी बड़ी सूखी-सी लगी। घर छोड़ने की ग्लानि, धर्म छोड़ने का परिताप और इस उद्भ्रांत जीवन की ये जिल्लतें आखिर वह किसके लिए झेल रहा है! मोह के आवेश से रहित सुबह की इस धूप में महेंद्र को लगा, वह विनोदिनी को प्यार नहीं करता। उसने रास्ते की ओर झाँका - सारी दुनिया परेशान-सी काम के पीछे भाग रही है और आत्म-गौरव को कीचड़ में डुबो कर एक बेरुखी औरत के पैरों से लिपटे रहने की जो नादानी है, वह महेंद्र की निगाहों में स्पष्ट हो उठी। आवेग के किसी बड़े झोंके के बाद हृदय में अवसाद आता है, ऐसे वक्त थका-हारा हृदय अनुभूति के विषय को कुछ समय के लिए दूर हटाना चाहता है। भावों का ऐसा भाटा पड़ने के समय नीचे की सारी छिपी हुई गन्दगी ऊपर आ जाती है-मोह लाने वाली वस्‍तु से विरक्त हो आती है। महेन्‍द्र क्‍यों अपने को इस तरह अपमानित कर रहा है, इसे वह आज न समझ सका। उसने सोचा, 'मैं हर तरह से विनोदिनी से बेहतर हूँ, फिर भी सब प्रकार की हीनता और झिड़कियाँ बर्दास्‍त करता हुआ घिनौने भिखमंगे-सा उसके पीछे मारा-मारा फिर रहा हूँ-ऐसा अजीब पागलपन किस शैतान ने मेरे दिमाग में भर दिया है।' आज विनोदिनी महेन्‍द्र के लिए महज एक औरत रह गई, और कुछ नहीं; उसके लिए चारों तरफ फैली धरती की सुषमा से, काव्‍यों से, कहानियों से लावण्‍य की जो एक ज्‍योति खिंच आई थी, उसकी माया-मरीचिका के गायब होते ही वह एक मामुली नारी-मात्र हो रही-उसका कोई अनोखापन न रहा।

फिर तो धिक्कार के इस मार-चक्र से अपने को छुड़ा कर घर जाने के लिए महेंद्र ललक उठा, बिहारी को निर्भर करने योग्य अडिग मिताई बड़ी बेशकीमती लगने लगी। महेंद्र मन-ही-मन कह उठा - 'जो वास्तव, गंभीर और स्थायी होता है, उसमें अनायास, बाधा-विहीन-सा अपने को पूरी तरह खोया जा सकता है, इसीलिए उसके गौरव को हम नहीं समझते। जो महज धोखा है, जिसकी तृप्ति में भी सुख का नाम नहीं, चूँकि वह हमें अपने पीछे घुड़दौड़-सी कराता है, इसलिए हम उसे अपनी चरम कामना का धन समझते हैं।'

महेंद्र ने तय किया - 'मैं आज ही अपने घर जाऊँगा। विनोदिनी जहाँ भी रहना चाहेगी, वहीं उसका इंतजाम करके मैं मुक्त हो जाऊँगा '- यह जोर से उच्चारण करते ही उसके मन में एक आनंद का उदय हुआ। लगातार दुविधा का जो भार वह ढोता चला आ रहा था, हल्का हो गया। अब तक होता ऐसा रहा कि अभी-अभी जो बात उसे रुचती न थी, दूसरे ही क्षण उसे मानने को मजबूर होना पड़ता था, हाँ-ना कहते न बनता; उसकी अंतरात्मा उसे जो आदेश देती, सदा बलपूर्वक उसे दबा कर वह दूसरी ही राह पर चला करता। अभी जैसे ही उसने जोर से कहा - 'मैं मुक्त हो जाऊँगा' - वैसे ही शरण पा कर उसके झकझोरे हुए हृदय ने उसे बधाई दी।

महेंद्र बिस्तर से उठा, मुँह-हाथ धोया और विनोदिनी से मिलने गया। देखा, कमरा अंदर से बंद है। दरवाजे पर धक्का दे कर पूछा - 'सो रही हो?'

विनोदिनी बोली - 'नहीं, अभी जाओ!'

महेंद्र ने कहा - 'तुमसे जरूरी बात करनी है। ज्यादा देर न रुकूँगा।'

विनोदिनी बोली - 'बात अब मैं नहीं सुनना चाहती, तुम जाओ, मुझे तंग मत करो- अकेली रहने दो।'

और दिन होता, तो इससे महेंद्र का आवेग और बढ़ ही जाता। लेकिन आज उसे बेहद घृणा हुई। सोचा, इस मामूली औरत के आगे अपने-आपको मैंने ऐसा गया-बीता बना छोड़ा है कि अब उसमें मुझे बुरी तरह दुत्कार कर दूर कर देने की हिम्मत हो गई है? यह अधिकार इसका स्वाभाविक नहीं। मैंने ही यह अधिकार दे कर इसके मिजाज को सातवें आसमान पर पहुँचा दिया है।

विनोदिनी की इस झिड़की से महेंद्र ने अपने में अपनी श्रेष्ठता के अनुभव की कोशिश की। उसके मन ने कहा - 'मैं विजयी होऊँगा - इसके बंधन तोड़ कर चला जाऊँगा।' भोजन करके महेंद्र रुपया निकालने बैंक गया। रुपया निकाला और आशा तथा माँ के लिए कुछ नई चीजें खरीदने के खयाल से वह बाजार की दुकानों में घूमने लगा।

विनोदिनी के दरवाजे पर एक बार फिर धक्का पड़ा। पहले तो आजिजी से उसने कोई जवाब ही न दिया; लेकिन जब बार-बार धक्का पड़ने लगा तो आग-बबूला हो कर दरवाजा खोलते हुए उसने कहा - 'नाहक क्यों बार-बार मुझे तंग करने आते हो तुम?'

बात पूरी करने के पहले ही उसकी नजर पड़ी - बिहारी खड़ा था। कमरे में महेंद्र है या नहीं, यह देखने के लिए बिहारी ने एक बार भीतर की तरफ झाँका। देखा, कमरे में सूखे फूल और टूटी मालाएँ बिखरी पड़ी थीं। उसका मन जबर्दस्त ढंग से विमुख हो उठा। यह नहीं कि बिहारी जब दूर था, तो उसके मन में विनोदिनी के रहन-सहन के बारे में संदेह का कोई चित्र आया ही नहीं, लेकिन कल्पना की लीला ने उस चित्र को ढककर भी एक दमकती हुई मोहिनी छवि खड़ी कर रखी थी। बिहारी जिस समय इस बगीचे में कदम रख रहा था, उस समय उसका दिल धड़कने लगा था - कल्पना की प्रतिमा को कहीं चोट न पहुँचे इस आंशका से उसका हृदय संकुचित हो रहा था। और विनोदिनी के सोने के कमरे के द्वार पर खड़े होते ही वही चोट लगी।

दूर रहते हुए बिहारी ने सोचा था कि अपने प्रेम के अभिषेक से मैं विनोदिनी के जीवन की सारी कालिमा को धो दूँगा। लेकिन पास आ कर देखा, यह आसान नहीं। मन में करुणा की वेदना कहाँ उपजी? बल्कि एकाएक घृणा ने जग कर उसे अभिभूत कर दिया। बिहारी ने उसे बड़ा मलिन देखा।

वह तुरंत मुड़ कर खड़ा हो गया और उसने 'महेंद्र -महेंद्र' कह कर पुकारा। इस अपमान से विनोदिनी ने नम्र स्वर में कहा - 'महेंद्र नहीं है, शहर गया है।'

बिहारी लौटने लगा। विनोदिनी बोली - 'भाई साहब, मैं पैर पड़ती हूँ, जरा देर बैठना पड़ेगा।'

बिहारी ने सोच रखा था, वह कोई आरजू-मिन्नत नहीं सुनेगा। तय कर लिया था कि नफरत के इस नजारे से तुरंत अपने को अलग कर लेगा। लेकिन विनोदिनी की करुण विनती से उसके कदम क्षण-भर के लिए उठ न सके।

विनोदिनी बोली - 'आज अगर तुम मुझे इस तरह ठुकरा कर चल दिए, तो तुम्हारी कसम खा कर कहती हूँ, मैं मर जाऊँगी।'

बिहारी पलट कर खड़ा हो गया, बोला - 'तुम अपने जीवन से मुझे जकड़ने की कोशिश क्यों करती हो? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? मैं तो कभी तुम्हारी राह में नहीं आया, तुम्हारे सुख-दु:ख में कभी दखल नहीं दिया।'

विनोदिनी बोली - 'तुमने मुझ पर कितना अधिकार कर रखा है, एक बार तुमसे कहा था मैंने - तुमने विश्वास नहीं किया। तो भी तुम्हारी बेरुखी में भी फिर वही कहती हूँ। बिना बोले जताने का शर्म से बताने का मौका तो तुमने मुझे दिया नहीं। तुमने मुझे पैरों से झटक दिया है, मैं फिर भी तुम्हारे पाँव पकड़ कर कहती हूँ - मैं तुम्हें...'

बिहारी ने टोकते हुए कहा - 'बस-बस, रहने दो, यह बात जबान पर मत लाओ। एतबार की गुंजाइश नहीं रही।'

विनोदिनी - 'इतर लोग इस पर विश्वास न करें, पर तुम करोगे। इसीलिए मैं तुम्हें जरा देर बैठने को कह रही हूँ।'

बिहारी - 'मेरे विश्वास करने, न करने से क्या आता-जाता है। तुम्हारी जिंदगी तो जैसी चल रही है, चलती रहेगी।'

विनोदिनी - 'इससे तुम्हारा कुछ आता-जाता नहीं, मैं जानती हूँ। अपना नसीब ही ऐसा है कि तुमसे मुझे सदा दूर ही रहना होगा। बस मैं केवल इतना हक नहीं छोड़ना चाहती कि मैं चाहे जहाँ रहूँ, मुझे जरा माधुर्य के साथ याद करना। मुझे मालूम है, मुझ पर तुम्हें थोड़ी-सी श्रद्धा हुई थी, मैं उसी को अपना अवलंब बनाए रहूँगी। इसीलिए मेरी पूरी बात तुम्हें सुननी होगी। मैं हाथ जोड़ती हूँ, जरा देर बैठो!'

'अच्छा चलो!' कह कर बिहारी उस कमरे से और कहीं जाने को तैयार हुआ।

विनोदिनी बोली - 'भाई साहब, जो सोच रहे हो, वह बात नहीं है। इस कमरे को कलंक की छाया नहीं छू सकी है। कभी यहाँ सोए थे - इसे मैंने तुम्हारे ही लिए उत्सर्ग करके रखा है। सूखे पड़े ये फूल तुम्हारी ही पूजा के हैं। तुम्हें यहीं बैठना होगा।'

सुन कर बिहारी के मन में पुलक का संचार हुआ। वह कमरे में गया। विनोदिनी ने दोनों हाथों से उसे खाट का इशारा किया। बिहारी खाट पर बैठा। विनोदिनी उसके पैरों के पास जमीन पर बैठी। विनोदिनी ने बिहारी को व्यस्त होते देख कर कहा - 'तुम बैठो, भाई साहब! सिर की कसम तुम्हें, उठना मत। मैं तुम्हारे पैरों के पास भी बैठने लायक नहीं - दया करके ही तुमने मुझे यह जगह दी है। दूर रहूँ, तो भी इतना अधिकार मैं रखूँगी।'

यह कह कर विनोदिनी जरा देर चुप रही। उसके बाद अचानक चौंक कर बोली - 'तुम्हारा खाना?'

बिहारी बोला - 'स्टेशन से खा कर आया हूँ।'

विनोदिनी - 'मैंने गाँव से तुम्हें जो पत्र दिया था, उसे खोल कर पढ़ा और कोई जवाब न दे कर उसे महेंद्र की मार्फत लौटा क्यों दिया?'

बिहारी - 'कहाँ, वह चिट्ठी तो मुझे नहीं मिली।'

विनोदिनी - 'इस बार कलकत्ता में महेंद्र से तुम्हारी भेंट हुई थी।'

बिहारी - 'तुम्हें गाँव पहुँचा कर लौटा, उसके दूसरे दिन भेंट हुई थी। उसके बाद मैं पछाँह की ओर सैर को निकल पड़ा, उससे फिर भेंट नहीं हुई।'

विनोदिनी - 'उससे पहले और एक दिन मेरी चिट्ठी पढ़ कर बिना उत्तर के वापिस कर दी?'

बिहारी - 'नहीं, ऐसा कभी नहीं हुआ।'

विनोदिनी बुत-सी बैठी रही। उसके बाद लंबी साँस छोड़ कर बोली - 'सब समझ गई। अब अपनी बात बताऊँ - मगर यकीन करो तो अपनी खुशकिस्मती समझूँ और न कर सको तो तुमको दोष न दूँगी। मुझ पर यकीन करना मुश्किल है।'

बिहारी का हृदय पसीज गया। भक्ति से झुकी विनोदिनी की पूजा का वह किसी भी तरह अपमान न कर सका। बोला - 'भाभी, तुम्हें कुछ कहना न पडेगा।। बिना कुछ सुने ही मैं तुम्हारा विश्वास करता हूँ। मैं तुमसे घृणा नहीं कर सकता। तुम अब एक भी शब्द न कहना!'

सुन कर विनोदिनी की आँखों से आँसू बहने लगे। उसने बिहारी के चरणों की धूल ली। बोली - 'सब न सुनोगे, तो मैं जी न सकूँगी। थोड़ा धीरज रख कर सुनना होगा - तुमने मुझे जो आदेश दिया था, मैंने उसी को सिर माथे उठा लिया था। तुमने मुझे पत्र तक न लिखा, तो भी अपने गाँव में मैं लोगों की निंदा सहकर जिंदगी बिता देती, तुम्हारे स्नेह के बदले तुम्हारे शासन को ही स्वीकार करती - लेकिन विधाता उसमें भी वाम हुए। जिस पाप को मैंने जगाया, उसने मुझे निर्वासन में भी न टिकने दिया। महेंद्र वहाँ पहुँचा, मेरे घर पर जा कर उसने सबके सामने मेरी मिट्टी पलीद की। गाँव में मेरे लिए जगह न रह गई। मैंने दुबारा तुम्हें बेहद तलाशा कि तुम्हारा आदेश लूँ, पर तुमको न पा सकी। मेरी खुली चिट्टी तुम्हारे यहाँ से ला कर मुझे देते हुए महेंद्र ने धोखा दिया। मैंने समझा, तुमने मुझे एकबारगी त्याग दिया। इसके बाद मैं बिलकुल नष्ट हो सकती थी - मगर पता नहीं तुममें क्या है, तुम दूर रह कर भी बचा सकते हो। मैंने दिल में तुम्हें जगह दी है, इसी से पवित्र रह सकी। कभी तुमने मुझे ठुकराकर अपना जो परिचय दिया था, तुम्हारा वही कठिन परिचय सख्त सोने की तरह, ठोस मणि की तरह मेरे मन में है, उसने मुझे मूल्यवान बनाया है। देवता, तुम्हारे पैर छू कर कहती हूँ, वह मूल्य नष्ट नहीं हुआ है।'

बिहारी चुप रहा। विनोदिनी भी और कुछ न बोली। तीसरे पहर की धूप पल-पल पर फीकी पड़ने लगी। ऐसे समय महेंद्र दरवाजे पर आया और बिहारी को देख कर चौंक पड़ा। विनोदिनी के प्रति उसमें जो उदासीनता आ रही थी, ईर्ष्या से वह जाने-जाने को हो गई। विनोदिनी को बिहारी के पाँवों के पास बैठी देख कर ठुकराए हुए महेंद्र को चोट पहुँची।

व्यंग्य के स्वर में महेंद्र ने कहा - 'तो अब रंगमंच से महेंद्र का प्रस्थान हुआ, बिहारी का प्रवेश! दृश्य बेहतरीन है। तालियाँ बजाने को जी चाहता है। लेकिन उम्मीद है, यही अंतिम अंक है। इसके बाद अब कुछ भी अच्छा न लगेगा।'

विनोदिनी का चेहरा तमतमा उठा। महेंद्र की शरण जब उसे लेनी पड़ी है, तो इस अपमान का क्या जवाब दे, व्याकुल हो कर उसने केवल बिहारी की ओर देखा।

बिहारी खाट से उठा। बोला - 'महेंद्र, कायर की तरह विनोदिनी का यों अपमान न करो - तुम्हारी भलमनसाहत अगर तुम्हें नहीं रोकती, तो रोकने का अधिकार मुझको है।'

महेंद्र ने हँस कर कहा - 'इस बीच अधिकार भी हो गया? आज तुम्हारा नया नामकरण है - विनोदिनी!'

अपमान करने का हौसला बढ़ता ही जा रहा है, यह देख कर बिहारी ने महेंद्र का हाथ दबाया। कहा - 'महेंद्र, मैं विनोदिनी से ब्याह करूँगा, सुन लो! लिहाजा संयत हो कर बात करो।'

महेंद्र अचरज के मारे चुप हो गया और विनोदिनी चौंक उठी। उसकी छाती के अंदर का लहू खलबला उठा।

बिहारी ने कहा - 'और एक खबर देनी है तुम्हें। तुम्हारी माँ मृत्युसेज पर हैं। बचने की कोई उम्मीद नहीं। मैं आज रात को ही गाड़ी से जाऊँगा - विनोदिनी भी मेरे साथ जाएगी।'

विनोदिनी ने चौंक कर पूछा - 'बुआ बीमार हैं?'

बिहारी बोला - 'हाँ, सख्त। कब क्या हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता।'

यह सुन कर महेंद्र ने और कुछ न कहा! चुपचाप कमरे से बाहर निकल गया।

विनोदिनी ने बिहारी से पूछा - 'अभी-अभी तुमने जो कहा, तुम्हारी जुबान पर यह बात कैसे आई? मजाक तो नहीं?'

बिहारी बोला - 'नहीं, मैंने ठीक ही कहा है। मैं तुमसे ब्याह करूँगा।'

विनोदिनी - 'किसलिए? उद्धार करने के लिए।'

बिहारी - 'नहीं, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ, इसलिए।'

विनोदिनी - 'यही मेरा पुरस्कार है। इतना-भर स्वीकार किया, मेरे लिए यही बहुत है, इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं चाहती। ज्यादा मिले भी तो रहने का नहीं।'

बिहारी - 'क्यों?'

विनोदिनी - 'वह सोचते हुए भी शर्म आती है। मैं विधवा हूँ, बदनाम हूँ- सारे समाज के सामने तुम्हारी फजीहत करूँ, यह हर्गिज नहीं होगा। छि:, यह बात जबान पर न लाओ।'

बिहारी - 'तुम मुझे छोड़ दोगी?'

विनोदिनी - 'छोड़ने का अधिकार मुझे नहीं। चुपचाप तुम बहुतों की बहुत भलाई किया करते हो - अपने वैसे ही किसी व्रत का कोई-सा भार मुझे देना, उसी को ढोती हुई मैं अपने-आपको तुम्हारी दासी समझा करूँगी। लेकिन विधवा से तुम ब्याह करोगे, छि:! तुम्हारी उदारता से सब-कुछ मुमकिन है, लेकिन मैं यह काम करूँ, समाज में तुम्हें नीचा करूँ तो जिंदगी में यह सिर कभी उठा न सकूँगी।'

बिहारी - 'मगर मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।'

विनोदिनी - 'उसी प्यार के अधिकार से आज मैं एक ढिठाई करूँगी।'

इतना कह कर विनोदिनी झुकी। उसने पैर की उँगली को चूम लिया। पैरों के पास बैठ कर बोली - 'तुम्हें अगले जन्म में पा सकूँ, इसके लिए मैं तपस्या करूँगी। इस जन्म में अब कोई उम्मीद नहीं। मैंने बहुत दु:ख उठाया - काफी सबक मिला। यह सबक अगर भूल बैठती, तो मैं तुम्हें नीचा दिखा कर और भी नीची बनती। लेकिन तुम ऊँचे हो, तभी आज मैं फिर से सिर उठा सकी हूँ- अपने इस आश्रय को मैं धूल में नहीं मिला सकती।'

बिहारी गंभीर हो रहा।

विनोदिनी ने हाथ जोड़ कर कहा - 'गलती मत करो - मुझसे विवाह करके तुम सुखी न होगे, अपना गौरव गँवा लोगे - मैं भी अपना गर्व खो बैठूँगी। तुम सदा निर्लिप्त रहो, प्रसन्न रहो। आज भी तुम वही हो - मैं दूर से ही तुम्हारा काम करूँगी। तुम खुश रहो, सदा सुखी रहो।'

आँख की किरकिरी

रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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