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खंड 2 पृष्ठ 2

आशा ने पूछा, 'अब सच-सच बताना, मेरी आँख की किरकिरी कैसी लगी तुम्हें?'

महेंद्र ने कहा - 'बुरी नहीं।'

आशा बहुत ही क्षुब्ध हो कर बोली, 'तुम्हें तो कोई अच्छी ही नहीं लगती।'

महेंद्र - 'सिर्फ एक को छोड़ कर।'

आशा ने कहा - 'अच्छा, परिचय जरा जमने दो, फिर देखती हूँ, अच्छी लगती है या नहीं।'

महेंद्र बोला - 'जमने दो? यानी ऐसा लगातार चला करेगा रवैया?'

आशा ने कहा - 'भलमनसाहत के नाते भी तो लोगों से बोलना-चालना पड़ता है। एक दिन की भेंट के बाद ही अगर मिलना-जुलना बंद कर दो, तो क्या सोचेगी बेचारी? तुम्हारा हाल ही अजीब है। और कोई होता तो ऐसी स्त्री से दौड़ कर मिला करता और तुम हो कि आफत आ पड़ी मानो!'

औरों से अपने इस फर्क की बात सुन कर महेंद्र खुश हुआ। बोला - 'अच्छा यही सही। मगर ऐसी जल्दबाजी क्या? मैं कहीं भागा तो नहीं जा रहा हूँ, न तुम्हारी सखी को भागने की जल्दी है- लिहाजा, बीच-बीच में भेंट हुआ ही करेगी और भेंट होने पर भलमनसाहत रखे, इतनी अक्ल तुम्हारे पति को है।'

महेंद्र ने सोचा था, अब से विनोदिनी किसी-न-किसी बहाने जरूर आ जाया करेगी। लेकिन गलत समझा था। वह पास ही नहीं फटकती कभी, अचानक जाते-आते भी कहीं नहीं मिलती।

अपनी स्त्री से वह इसका जिक्र भी न करता कि कहीं मेरा आग्रह न झलक पड़े। बीच-बीच में विनोदिनी से मिलने की स्वाभाविक और मामूली-सी इच्छा को छिपाए और दबाए रखने की कोशिश में उसकी अकुलाहट बढ़ने लगी। फिर विनोदिनी की उदासीनता उसे और उत्तेजित करने लगी।

विनोदिनी से भेंट होने के दूसरे दिन प्रसंगवश यों ही मजाक में महेंद्र ने आशा से पूछा - 'तुम्हारा यह अयोग्य पति तुम्हारी आँख की किरकिरी को कैसा लगा?'

महेंद्र को इसकी जबरदस्त आशा थी कि पूछने से पहले ही आशा से उसे इसका बड़ा ही अच्छा ब्यौरा मिलेगा। लेकिन सब्र करने का जब कोई नतीजा न निकला, तो ढंग से यह पूछ बैठा।

आशा मुश्किल में पड़ी। विनोदिनी ने कुछ भी नहीं कहा। इससे आशा अपनी सखी से नाराज हुई थी। बोली - 'ठहरो भी, दो-चार दिन मिल-जुल कर तो कहेगी। कल भेंट भी कितनी देर को हुई और बातें भी कितनी हो सकीं।'

महेंद्र इससे भी कुछ निराश हुआ और विनोदिनी के बारे में लापरवाही दिखाना उसके लिए और भी कठिन हो गया।

इसी बीच बिहारी आ पहुँचा। पूछा - 'क्यों भैया, आज किस बात पर विवाद छिड़ा हुआ है?'

महेंद्र ने कहा - 'देखो न, तुम्हारी भाभी ने कुमुदिनी या प्रमोदिनी जाने किससे तो जाने क्या नाता जोड़ा है लेकिन मुझे भी अगर उससे वैसा ही कुछ जोड़ना पड़े तो जीना मुश्किल जानो!'

आशा के घूँघट के अंदर घोर कलह घिर आया। बिहारी जरा देर चुपचाप महेंद्र की ओर ताकता रहा और हँसता रहा। बोला - 'भाभी, बात तो यह अच्छी नहीं। यह सब भुलाने की बातें हैं। तुम्हारी आँख की किरकिरी को मैंने देखा है, और भी अगर बार-बार देख पाऊँ, तो उसे दुर्घटना न समझूँगा, यह मैं कसम खा कर कह सकता हूँ। लेकिन इतने पर भी महेंद्र जब कबूल नहीं करना चाहते तो दाल में कुछ काला है।'

महेंद्र और बिहारी में बहुत भेद है, आशा को इसका एक और सबूत मिला।

अचानक महेंद्र को फोटोग्राफी का शौक हो आया। पहले भी एक बार उसने सीखना शुरू करके छोड़ दिया था। उसने फिर से कैमरे की मरम्मत की, और तस्वीरें लेना शुरू कर दिया। घर के नौकर-चाकरों तक के फोटो लेने लगा।

आशा जिद पकड़ बैठी- 'मेरी सखी की तस्वीर लेनी पड़ेगी।'

बहुत मुख्तसर में महेंद्र ने जवाब दिया- 'अच्छा!'

और उससे भी मुख्तसर में उसकी आँख की किरकिरी ने कहा - 'नहीं।' आशा को इसके लिए फिर एक तरकीब खोजनी पड़ी।

तरकीब यह थी कि आशा किसी तरह उसे अपने कमरे में बुलाएगी और सोते समय ही उसकी तस्वीर को ले कर महेंद्र एक खासा सबक देगा।

मजे की बात यह कि विनोदिनी दिन में कभी सोती नहीं। लेकिन उस दिन आशा के कमरे में उसे झपकी आ गई। बदन पर लाल ऊनी चादर डाले, खुली खिड़की की तरफ मुँह किए, हथेली पर सिर रखे वह ऐसी सुंदर अदा से सोई थी कि महेंद्र ने कहा - 'लगता है, फोटो खिंचाने के लिए तैयार हुई है।'

दबे पाँव महेंद्र कैमरा ले कर आया। किस तरह से तस्वीर अच्छी आएगी, यह तय करने के लिए विनोदिनी को बड़ी देर तक बहुत अच्छी तरह देख लेना पड़ा। यहाँ तक कि कला की खातिर छिप कर सिरहाने के पास उसके बिखरे बालों को जरा-सा हटा देना पड़ा। नहीं जँचा तो उसे फिर से सुधार लेना पड़ा। कानों कान उसने आशा से कहा - 'पाँव के पास से चादर को जरा बाईं तरफ खिसका दो!'

भोली आशा ने उसके कानों में कहा - 'मुझसे ठीक न बनेगा, कहीं नींद न टूट जाए। तुम्हीं खिसका दो।'

महेंद्र ने चादर खिसका दी।

और तब उसने तस्वीर खींचने के लिए कैमरे में प्लेट डाली। डालना था कि खटका हुआ और विनोदिनी हिल उठी, लंबा नि:श्वास छोड़ घबरा कर उठ बैठी। आशा जोर से हँस पड़ी। विनोदिनी बेहद नाराज हुई। अपनी जलती हुई आँखों से महेंद्र पर चिनगारियाँ बरसाती हुई बोली - 'बहुत बुरी बात है।'

महेंद्र ने कहा - 'बेशक बुरी बात है। लेकिन चोरी भी की और चोरी का माल हाथ न लगा, इससे तो मेरे दोनों काल गए। इस बुराई को ही लेने दीजिए, उसके बाद मुझे सजा दीजिएगा।'

आशा भी बहुत आरजू-मिन्नत करने लगी। तस्वीर ली गई। लेकिन पहली तस्वीर खराब हो गई। लिहाज़ा दूसरे दिन दूसरी तस्वीर लिए बिना फोटोग्राफर न माना। उसके बाद मित्रता के चिद्द-स्वरूप दोनों सखियों की एक साथ एक तस्वीर लेने की बात आई। विनोदिनी 'ना' न कह सकी। बोली - 'यही लेकिन आखिरी है।'

यह सुन कर महेंद्र ने उस तस्वीर को बर्बाद कर दिया। इस तरह तस्वीर लेते-लेते परिचय काफी आगे बढ़ गया।

आँख की किरकिरी

रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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