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तीसरा अध्याय / बयान 13

कुंअर वीरेन्द्रसिंह धीरे - धीरे बेहोश होकर उस गद्दी पर लेट गए। जब आंख खुली अपने को एक पत्थर की चट्टान पर सोये पाया। घबराकर इधर-उधरदेखने लगे। चारों तरफ ऊंची-ऊंची पहाड़ी, बीच में बहता चश्मा, किनारे-किनारे जामुन के दरख्तों की बहार देखने से मालूम हो गया कि यह वही तहखाना है जिसमें ऐयार लोग कैद किये जाते थे, जिस जगह तेजसिंह ने महाराज शिवदत्त को मय उनकी रानी के कैद किया था, या कुमार ने पहाड़ी के ऊपर चंद्रकान्ता और चपला को देखा था। मगर पास न पहुंच सके थे।

कुमार घबराकर पत्थर की चट्टान पर से उठ बैठे और उस खोह को अच्छी तरह पहचानने के लिए चारों तरफ घूमने और हर एक चीज को देखने लगे। अब शक जाता रहा और बिल्कुल यकीन हो गया कि यह वही खोह है, क्योंकि उसी तरह कैदी महाराज शिवदत्त को जामुन के पेड़ के नीचे पत्थर की चट्टान पर लेटे और पास ही उनकी रानी को बैठे और पैर दबाते देखा। इन दोनों का रुख दूसरी तरफ था, कुमार ने उनको देखा मगर उनको कुमार का कुछ गुमान तक भी न हुआ।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह दौड़े हुए उस पहाड़ी के नीचे गये जिसके ऊपर वाले दलान में कुमारी चंद्रकान्ता और चपला को छोड़ तिलिस्म तोड़ने खोह के बाहर गये थे। इस वक्त भी कुमारी को उस दिन की तरह वही मैली और फटी साड़ी पहने उसी तौर से चेहरे और बदन पर मैल चढ़ी और बालों की लट बांधो बैठे हुए देखा।

देखते ही फिर वही मुहब्बत की बला सिर पर सवार हो गई। कुमारी को पहले की तरह बेबसी की हालत में देख आंखों में आंसू भर आये, गला रुक गया और कुछ शर्मा के सामने से हट एक पेड़ की आड़ में खड़े हो जी में सोचने लगे, 'हाय, अब कौन मुंह लेकर कुमारी चंद्रकान्ता के सामने जाऊं और उससे क्या बातचीत करूं? पूछने पर क्या यह कह सकूंगा कि तुम्हें छुड़ाने के लिए तिलिस्म तोड़ने गये थे लेकिन अभी तक वह नहीं टूटा। हा! मुझसे तो यह बात कभी नहीं कही जायगी। क्या करूं वनकन्या के फेर में तिलिस्म तोड़ने की सुधा जाती रही और कई दिन का हर्ज भी हुआ। जब कुमारी पूछेगी कि तुम यहां कैसे आये तो क्या जवाब दूंगा? शिवदत्त भी यहां दिखाई देता है। लश्कर में तो सुना था कि वह छूट गया बल्कि उसका दीवान खुद नजर लेकर आया था, तब यह क्या मामला है!'

इन सब बातों को कुमार सोच ही रहे थे कि सामने से तेजसिंह आते दिखाई पड़े जिनके कुछ दूर पीछे देवीसिंह और पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी भी थे। कुमार उनकी तरफ बढ़े। तेजसिंह सामने से कुमार को अपनी तरफ आते देख दौड़े और उनके पास जाकर पैरों पर गिर पड़े, उन्होंने उठाकर गले से लगा लिया। देवीसिंह से भी मिले और ज्योतिषीजी को दण्डवत किया। अब ये चारों एक पेड़ के नीचे पत्थर पर बैठकर बातचीत करने लगे।

कुमार-देखो तेजसिंह, वह सामने कुमारी चंद्रकान्ता उसी दिन की तरह उदास और फटे कपड़े पहिरे बैठी है और बगल में उसकी सखी चपला बैठी अपने आंचल से उनका मुंह पोछ रही है।

तेज-आपसे कुछ बातचीत भी हुई?

कुमार-नहीं कुछ नहीं, अभी मैं यही सोच रहा था कि उसके सामने जाऊं या नहीं।

तेज-कै दिन से आप यह सोच रहे हैं?

कुमार-अभी मुझको इस घाटी में आये दो घड़ी नहीं हुई।

तेज-(ताज्जुब से) क्या आप अभी इस खोह में आये हैं? इतने दिनों तक कहां रहे? आपको लश्कर से आये तो कई दिन हुए! इस वक्त आपको यकायक यहां देख के मैंने सोचा कि कुमारी के इश्क में चुपचाप लश्कर से निकलकर इस जगह आ बैठे हैं।

कुमार-नहीं, मैं अपनी खुशी से लश्कर से नहीं आया, न मालूम कौन उठा ले गया था।

तेज-(ताज्जुब से) हैं, क्या अभी तक आपको यह भी मालूम नहीं हुआ कि लश्कर से आपको कौन उठा ले गया था।

कुमार-नहीं, बिल्कुल नहीं।

इतना कहकर कुमार ने अपना बिल्कुल हाल पूरा-पूरा कह सुनाया। जब तक कुमार अपनी कैफियत कहते रहे तीनों ऐयार अचंभे में भरे सुनते रहे। जब कुमार ने अपनी कथा समाप्त की तब तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा, “यह क्या मामला है, आप कुछ समझे?”

ज्यो-कुछ नहीं, बिल्कुल ख्याल में ही नहीं आता कि कुमार कहां गये थे और उन्हें ऐसे तमाशे दिखलाने वाला कौन था।

कुमार-तिलिस्म तोड़ने के वक्त जो ताज्जुब की बातें देखी थीं उनसे बढ़कर इन दो-तीन दिनों में दिखाई पड़ीं।

देवी-किसी छोटे दिल के डरपोक आदमी को ऐसा मौका पड़े तो घबरा के जान ही दे दे।

ज्यो-इसमें क्या संदेह है!

कुमार-और एक ताज्जुब की बात सुनो, शिवदत्त भी यहां दिखाई पड़ रहा है।

तेज-सो कहां?

कुमार-(हाथ का इशारा करके) वह, उस पेड़ के नीचे नजर दौड़ाओ।

तेज-हां ठीक तो है, मगर यह क्या मामला है! चलो उससे बात करें, शायद कुछ पता लगे।

कुमार-उसके सामने ही कुमारी चंद्रकान्ता पहाड़ी के ऊपर है, पहले उससे कुछ हाल पूछना चाहिए। मेरा जी तो अजब पेच में पड़ा हुआ है, कोई बात बैठती ही नहीं कि वह क्या पूछेगी और मैं क्या जवाब दूंगा।

तेज-आशिकों की यही दशा होती है, कोई बात नहीं, चलिए मैं आपकी तरफ से बात करूंगा।

चारों आदमी शिवदत्त की तरफ चले। पहले उस पहाड़ी के नीचे गये जिसके ऊपर छोटे दलान में कुमारी चंद्रकान्ता और चपला बैठी थीं। कुमारी की निगाह दूसरी तरफ थी, चपला ने इन लोगों को देखा, वह उठ खड़ी हुई और आवाज देकर कुमार के राजी-खुशी का हाल पूछने लगी। जवाब खुद कुमार ने देकर कुमारी चंद्रकान्ता के मिजाज का हाल पूछा। चपला ने कहा, “इनकी हालत तो देखने ही से मालूम होती होगी, कहने की जरूरत ही नहीं।”

कुमारी अभी तक सिर नीचे किए बैठी थी। चपला के बातचीत की आवाज सुन चौंककर उसने सिर उठाया। कुमार को देखते ही हाथ जोड़कर खड़ी हो गई और आंखों से आंसू बहाने लगी।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने कहा, “कुमारी तुम थोड़े दिन और सब्र करो। तिलिस्म टूट गया, थोड़ा बाकी है। कई सबबों से मुझे यहां आना पड़ा, अब मैं फिर उसी तिलिस्म की तरफ जाऊंगा!”

चपला-कुमारी कहती हैं कि मेरा दिल यह कह रहा है कि इन दिनों या तो मेरी मुहब्बत आपके दिल से कम हो गई है या फिर मेरी जगह किसी और ने दखल कर ली। मुद्दत से इस जगह तकलीफ उठा रही हूं जिसका ख्याल मुझे कभी भी न था मगर कई दिनों से यह नया ख्याल जी में पैदा होकर मुझे बेहद सता रहा है।

चपला इतना कह के चुप हो गई। तेजसिंह ने मुस्कुराते हुए कुमार की तरफ देखा और बोले, “क्यों, कहो तो भण्डा फोड़ दूं!”

कुमार इसके जवाब में कुछ कह न सके, आंखों से आंसू की बूंदें गिरने लगीं और हाथ जोड़ के उनकी तरफ देखा। हंसकर तेजसिंह ने कुमार के जुड़े हाथ छुड़ा दिये और उनकी तरफ से खुद चपला को जवाब दिया-

“कुमारी को समझा दो कि कुमार की तरफ से किसी तरह का अंदेशा न करें, तुम्हारे इतना ही कहने से कुमार की हालत खराब हो गई।”

चपला-आप लोग आज यहां किसलिए आये?

तेज-महाराज शिवदत्त को देखने आये हैं, वहां खबर लगी थी कि ये छूटकर चुनार पहुंच गये।

चपला-किसी ऐयार ने सूरत बदली होगी, इन दोनों को तो मैं बराबर यहीं देखती रहती हूं।

तेज-जरा मैं उनसे भी बातचीत कर लूं।

तेजसिंह और चपला की बातचीत महाराज शिवदत्त कान लगाकर सुन रहे थे। अब वे कुमार के पास आये, कुछ कहा चाहते थे कि ऊपर चंद्रकान्ता और चपला की तरफ देखकर चुप हो रहे।

तेज-शिवदत्त, हां क्या कहने को थे, कहो रुक क्यों गये?

शिव-अब न कहूंगा।

तेज-क्यों?

शिव-शायद न कहने से जान बच जाय।

तेज-अगर कहोगे तो तुम्हारी जान कौन मारेगा?

शिव-जब इतना ही बता दूं तो बाकी क्या रहा?

तेज-न बताओगे तो मैं तुम्हें कब छोड़ूंगा।

शिव-जो चाहो करो मगर मैं कुछ न बताऊंगा।

इतना सुनते ही तेजसिंह ने कमर से खंजर निकाल लिया, साथ ही चपला ने ऊपर से आवाज दी, “नहीं, ऐसा मत करना!” तेजसिंह ने हाथ रोककर चपला की तरफ देखा।

चपला-शिवदत्त के ऊपर खंजर खींचने का क्या सबब है?

तेज-यह कुछ कहने आये थे मगर तुम्हारी तरफ देखकर चुप हो रहे, अब पूछता हूं तो कुछ बताते नहीं, बस कहते हैं कि कुछ बोलूंगा तो जान चली जायगी। मेरी समझ में नहीं आता कि यह क्या मामला है। एक तो इनके बारे में हम लोग आप ही हैरान थे, दूसरे कुछ कहने के लिए हम लोगों के पास आना और फिर तुम्हारी तरफ देखकर चुप हो रहना और पूछने से जवाब देना कि कहेंगे तो जान चली जायगी इन सब बातों से तबीयत और परेशान होती है?

चपला-आजकल ये पागल हो गये हैं, मैं देखा करती हूं कि कभी-कभी चिल्लाया और इधर-उधर दौड़ा करते हैं। बिल्कुल हालत पागलों की-सी पाई जाती है,इनकी बातों का कुछ ख्याल मत करो?

शिव-उल्टे मुझी को पागल बनाती है!

तेज-(शिवद्त्त से) क्या कहा, फिर तो कहो?

शिव-कुछ नहीं, तुम चपला से बातें करो, मैं तो आजकल पागल हो गया हूं।

देवी-वाह, क्या पागल बने हैं।

शिव-चपला का कहना बहुत सही है, मेरे पागल होने में कोई शक नहीं।

कुमार-ज्योतिषीजी, जरा इन नई गढ़न्त के पागल को देखना!

ज्यो-(हंसकर) जब आकाशवाणी हो ही चुकी कि ये पागल हैं तो अब क्या बाकी रहा?

कुमार-दिल में कई तरह के खुटके पैदा होते हैं।

तेज-इसमें जरूर कोई भारी भेद है। न मालूम वह कब खुलेगा, लाचारी यही है कि हम कुछ कर नहीं सकते!

देवी-हमारी ओस्तादिन इस भेद को जानती हैं मगर उनको अभी इस भेद को खोलना मंजूर नहीं।

कुमार-यह बिल्कुल ठीक है।

देवीसिंह की बात पर तेजसिंह हंसकर चुप हो रहे। महाराज शिवदत्त भी वहां से उठकर अपने ठिकाने जा बैठे। तेजसिंह ने कुमार से कहा, “अब हम लोगों को लश्कर में चलना चाहिए। सुनते हैं कि हम लोगों के पीछे महाराज शिवदत्त ने लश्कर पर धावा मारा जिससे बहुत कुछ खराबी हुई। मालूम नहीं पड़ता वह कौन शिवदत्त था, मगर फिर सुनने में आया कि शिवदत्त भी गायब हो गया। अब यहां आकर फिर शिवदत्त को देख रहे हैं!”

कुमार-इसमें तो कोई शक नहीं कि ये सब बातें बहुत ही ताज्जुब की हैं, खैर तुमने जो कुछ जिसकी जुबानी सुना है साफ-साफ कहो।

तेजसिंह ने अपने तीनों आदमियों का कुमार की खोज में लश्कर से बाहर निकलना, नौगढ़ राज्य में सुरेन्द्रसिंह के दरबार में भेष बदले हुए पहुंचकर दो जासूसों की जुबानी लश्कर का हाल सुनना, महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह का चुनार पर चढ़ाई करना इत्यादि सब हाल कहा जिसे सुन कुमार परेशान हो गये, खोह के बाहर चलने के लिए तैयार हुए। कुमारी चंद्रकान्ता से फिर कुछ बातें कर और धीरज दे आंखों से आंसू बहाते कुंअर वीरेन्द्रसिंह उस खोह के बाहर हुए।

शाम हो चुकी थी जब ये चारों खोह के बाहर आये। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा कि हम लोग यहां बैठते हैं तुम नौगढ़ जाकर सरकारी अस्तबल में से एक उम्दा घोड़ा खोल लाओ जिस पर कुमार को सवार कराके तिलिस्म की तरफ ले चलें, मगर देखो किसी को मालूम न हो कि देवीसिंह घोड़ा ले गए हैं।

देवी-जब किसी को मालूम हो ही गया तो मेरे जाने से फायदा क्या?

तेज-कितनी देर में आओगे?

देवी-यह कोई भारी बात तो है नहीं जो देर लगेगी, पहर भर के अंदर आ जाऊंगा।[1]

यह कहकर देवीसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए, उनके जाने के बाद ये तीनों आदमी घने पेड़ों के नीचे बैठ बातें करने लगे।

कुमार-क्यों ज्योतिषीजी, शिवदत्त का भेद कुछ न खुलेगा?

ज्यो-इसमें तो कोई शक नहीं कि वह असल में शिवदत्त ही था जिसने कैद से छूटकर अपने दीवान के हाथ आपके पास तोहफा भेजकर सुलह के लिए कहलाया था, और विचार से मालूम होता है कि वह भी असली शिवदत्त ही है जिसे आप इस वक्त खोह में छोड़ आए हैं, मगर बीच का हाल कुछ मालूम नहीं होता कि क्या हुआ।

कुमार-पिजाती ने चुनार पर चढ़ाई की है, देखें इसका नतीजा क्या होता है। हम लोग भी वहां जल्दी पहुंचते तो ठीक था।

ज्यो-कोई हर्ज नहीं, वहां बोलने वाला कौन है? आपने सुना ही है कि शिवदत्त

फिर गायब हो गया बल्कि उस पुरजे से जो उसके पलंग पर मिला मालूम होता है फिर गिरफ्तार हो गया।

तेज-हां चुनार दखल होने में क्या शक है, क्योंकि सामना करने वाला कोई नहीं, मगर उनके ऐयारों का खौफ जरा बना रहता है।

कुमार-बद्रीनाथ वगैरह भी गिरफ्तार हो जाते तो बेहतर था।

तेज-अबकी चलकर जरूर गिरफ्तार करूंगा।

इसी तरह की बात करते इनको पहर भर से ज्यादे गुजर गया। देवीसिंह घोड़ा लेकर आ पहुंचे जिस पर कुमार सवार हो तिलिस्म की तरफ रवाना हुए,साथ-साथ तीनों ऐयार पैदल बातें करते जाने लगे।

शब्दार्थ:

    ↑ उस खोह से नौगढ़ सिर्फ डेढ़ या दो कोस होगा